भारतीय जनता पार्टी के नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय (Ashwini Upadhyay) ने नरिंदर नाथ वोहरा (एनएन वोहरा) कमेटी (NN Vohra Committee) की रिपोर्ट सार्वजिनिक करने की मांग की है. उपाध्याय का कहना है कि यदि यह रिपोर्ट सामने आ गई तो महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार गिर जाएगी. बता दें कि पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में गठित एनएन वोहरा कमेटी ने 100 पन्नों की रिपोर्ट तैयार तैयार की थी, जिसके मात्र 12 पन्ने ही सार्वजनिक किए गए हैं. यह रिपोर्ट बेहद विस्फोटक बताई जाती है. इसमें दाउद जैसे बड़े अपराधियों के राजनेताओं और नौकरशाओं के नेक्सस का खुलासा किया गया है.
अश्विनी उपाध्याय ने ट्वीट कर लिखा, “गद्दारों का नाम कब सार्वजनिक होगा?, दाऊद के कितने साथी आज भी सांसद हैं?, वोहरा कमेटी रिपोर्ट कब सार्वजनिक होगी?, वोहरा कमेटी रिपोर्ट पर कार्यवाही कब होगी? #VohraCommitteeReport सार्वजनिक हो जाये तो महाराष्ट्र सरकार तत्काल गिर जाएगी”. उपाध्याय ने अपने ट्वीट में पीएम नरेंद्र मोदी, गृममंत्री अमित शाह तथा प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग किया है.
क्या है एनएन वोहरा कमेटी रिपोर्ट ?
1993 में केंद्र की पीवी नरसिंह राव की तत्कालीन सरकार ने वोहरा समिति गठित की थी, जिसने नेताओं, अपराधियों और नौकरशाहों के गठजोड़ की ओर ध्यान दिलाते हुए इसका हल बताया था. इस समिति की अध्यक्षता तब के गृह सचिव एनएन वोहरा ने की थी. समिति में रॉ और आइबी के सचिव, सीबीआई के निदेशक और गृह मंत्रालय के विशेष सचिव (आंतरिक सुरक्षा एवं पुलिस) भी शामिल थे.
सामने आई संरक्षण की बात
वोहरा समिति का गठन 1993 मुंबई विस्फोटों के दौरान किया गया था. खुफिया एवं जांच एजंसियों ने दाऊद इब्राहिम गैंग की गतिविधियों और संबंधों को लेकर रिपोर्ट दी थी. इनमें साफ था कि मेमन भाइयों और दाऊद इब्राहिम का साम्राज्य सरकारी तंत्र के संरक्षण के बिना खड़ा नहीं हो सकता था.
नहीं बनी नोडली एजेंसी, धूल फांकती रही रिपोर्ट
तब यह जरूरी माना गया कि इस गठजोड़ के बारे में पता लगाया जाए और इस तरह के मामलों में वक्त रहते जानकारी जुटाकर कार्रवाई की जाए. तब समिति ने सिफारिश की थी कि सरकार एक नोडल एजेंसी बनाए तो ऐसे मामले का पर्यवेक्षण करे. कहा गया कि रॉ, आईबी, सीबीआई के पास जो भी जानकारी या डेटा होगा उसे नोडल एजेंसी को दे दिया जाएगा. लेकिन वोहरा समिति की रिपोर्ट धूल खाती रही.
दाऊद का नेताओं-अफसरों से नेक्सस आया सामने
पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. 1995 में समिति की 100 पन्नों की रिपोर्ट में से सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए गए. कहा गया कि वोहरा रिपोर्ट में दाऊद इब्राहिम के अफसरों और नेताओं से संबंधों की विस्फोटक जानकारी थी.
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ
जब 1997 में केंद्र सरकार पर रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई. अदालत ने सरकार की दलील मानी और कहा कि सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इसके बाद कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई. 26 सितंबर, 2018 को चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र के महल में दीमक करार दिया था.
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा भी शामिल थे. चीफ जस्टिस मिश्रा ने इस फैसले में भी 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद गठित एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट का जिक्र किया. उन्होंने कहा, भारतीय राजनीतिक प्रणाली में राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजान विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा.
मोदी सरकार में भी उठ चुकी है मांग
2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो तृणमूल नेता दिनेश त्रिवेदी ने उनसे रिपोर्ट सार्वजनिक करने की अपील की. लेकिन स्थिति जस की तस है. अधिकारियों के मुताबिक, आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लॉबी, तस्कर गिरोहों, माफिया तत्वों के साथ भ्रष्ट नेताओं एवं अफसरों के गठबंधन को तोड़ने के ठोस उपाय भी वोहरा रपट में सुझाए गए हैं. रपट की तीन प्रतियां ही तैयार की गई थीं.
इसलिए कभी सार्वजनिक नहीं हुई रिपोर्ट
सभी प्रतियों को गोपनीय रखा गया है. कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट में दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के नेक्सस की विस्फोटक जानकारियां हैं. इसीलिए कोई भी दल इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
माफिया-नेता-अफसर का सिंडिकेट
वोहरा समिति ने अपनी रपट में बार-बार इसका उल्लेख किया कि राजनीतिक संरक्षण से ही देश में तरह-तरह के गलत धंधे फल-फूल रहे हैं. रिपोर्ट में कहा गया है- यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आपराधिक सिंडिकेटों के राज्यों और केंद्र के वरिष्ठ सरकारी अफसरों या नेताओं के साथ साठगांठ के बारे में सूचना के किसी प्रकार के लीकेज का सरकारी कामकाज पर अस्थिर प्रभाव हो सकता है.
राजनीति में बढ़ा अपराधीकरण
इस बीच बीते चार आम चुनाव से राजनीति में अपराधीकरण तेजी से बढ़ा है. 2004 में 24 फीसद सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी, लेकिन 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 फीसदी और 2014 में 34 फीसद हो गई. चुनाव आयोग के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 43 फीसद सांसदों के खिलाफ अपराध के मामले लंबित हैं.
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