जाति का DNA और राजनीति की भूख: हृदयनारायण दीक्षित का व्यंग्यबाण

शब्द डीएनए खास चर्चा में है इसका प्रयोग जब कब होता रहता है। इसका पूरा नाम ‘डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड‘ है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जीवों की आनुवंशिक विशेषता के हस्तांतरण के लिए जिम्मेदार है। डीएनए का अधिकांश भाग कोशिका के केन्द्रक में पाया जाता है। यह शरीर का सूक्ष्मतम मुख्य घटक है और वंशानुक्रम के शोध में सहायक है। यह विज्ञान की अद्भुत खोज है। लेकिन राजनीति के आरोप प्रत्यारोप में भी इसका चलन बढ़ा है। वैसे भी राजनीति में एक दूसरे की वंशावली खंगालते रहने वाले चर्चा में रहते हैं। डीएनए जांच की मांग चला करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अदालती मामलों में डीएनए टेस्ट के बढ़ते उपयोग पर चिंता व्यक्त की है। राजनीति में डीएनए शब्द का प्रयोग बढ़ रहा है। शब्द की मार बड़ी होती है।

संप्रति उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी और उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक के बीच डीएनए को लेकर बहस है। बड़े मसलों पर राय देने की मेरी औकात नहीं है। लेकिन दिल नहीं माना। दिल तो बच्चा है जी। पाठक जी का वक्तव्य राजनैतिक था शालीन था। प्रतिपक्ष का अशालीन और अभद्र। उसे दोहराना उचित नहीं। व्यक्तिगत आरोप राजनीति को तनावपूर्ण बनाते हैं। विश्वास है कि शालीन शब्दों के प्रयोग से यह विवाद शांत हो जाएगा। ऐसे वक्तव्यों को गंभीरता से लेने का कोई लाभ नहीं। उपेक्षा से ही अपेक्षित प्रत्युत्तर मिल जाते हैं।

जीवन गंभीरता से ही नहीं चलता। मूर्खता का भी अपना आनंद है। चुटकुले मजा देते हैं। श्रोता बच्चों की तरह सुनते हैं। इस अल्प अवधि में व्यक्ति शिशु हो जाता है, लेकिन स्वयं को श्रेष्ठ समझने वाले चुटकुलों पर नहीं हंसते। वे हंसी रोकने का प्रयास करते हैं और स्वयं चुटकुला बन जाते हैं। मैं यहां स्वयं को बुद्धिमान समझने की मूर्खता से पैदा हास्य बोध की चर्चा कर रहा हूं। आइए लगे हाथ बिहार राजद के पूर्व विधायक यदुवंश कुमार यादव का एक हास्यास्पद बयान पढ़ते हैं। उन्होंने अपनी राजनीति के पक्ष में ज्ञानपूर्ण (?) बयान दिया है कि, ”ब्राह्मण रूस और अन्य यूरोपीय देशों से यहां आए थे। ये भारतवासी नहीं हैं। इन्हें रूस चले जाना चाहिए।” यह आरोप बड़ा है। उन्होंने कहा था कि, ”डीएनए जांच से पता चला है कि कोई भी ब्राह्मण इस देश का नहीं है, वह रूस और अन्य यूरोपीय देशों से यहां आकर बस गए हैं।” प्रश्न है कि ऐसी डीएनए जांच कब हुई? क्यों हुई? क्या रूस में ब्राह्मण थे? डीएनए रिपोर्ट पूर्व विधायक जी को कहाँ से मिली? सवाल और भी हैं-क्या रूस के सारे ब्राह्मण भारत आ गए थे या कुछ प्रतिशत ब्राह्मण वही रह गए थे? इस बात का कोई पता नहीं। जाहिर है कि वक्तव्य झूठा है।

सोशल मीडिया पर पूर्व विधायक का मनोरंजक बयान वायरल हुआ। ऐसे ज्ञान को दूर से ही नमस्कार। एक न्यूज चैनल ने ‘क्या यादव ही यहूदी हैं’ कार्यक्रम का प्रसारण किया। यादवों और यहूदियों को एक बताने के साथ मोजेज और श्रीकृष्ण के जीवन में समानता ढूंढने की कोशिश की। कार्यक्रम में गया कहा कि, ”चैनल की रिसर्च के अनुसार ज्यादातर यादव मानते हैं कि वे यहूदी हैं।”

मैं जन्मतः ब्राह्मण परिवार का हूं। पूर्णकालिक सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। स्वभाव से विद्यार्थी हूं। कायदे से ब्राह्मण होने के नाते मुझे कड़ा प्रतिवाद करना चाहिए। लेकिन इस बयान से मेरा मनोरंजन हुआ है। मन प्रश्न करता है कि 21वीं सदी के भारत में भी ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें क्यों चल रही हैं। सोशल मीडिया और गूगल बाबा के ज्ञान कोष के बावजूद मूर्खता का प्रभाव गहरा क्यों है? दुनिया के अन्य देशों में ऐसा नहीं होता। डेविड धवन की एक फिल्म में गीत है, ’इट हैपंस ओनली इन इंडिया’। बेशक राजनैतिक कार्यकर्ता से एंथ्रोपोलॉजी की जानकारी की आशा नहीं की जा सकती, लेकिन कोई स्वयं ही अपनी मूर्खता को विद्वता सिद्ध करने के लिए डीएनए की बात करे तो ऐसे व्यक्ति से न्यूनतम शालीन होने की अपेक्षा समाज का अधिकार है।

सुनते हैं कि, “एक गली में मुर्गा मुर्गी भाग दौड़ कर रहे थे। अचानक एक गाड़ी की चपेट में आकर मुर्गी मर गई। तमाशा देख रहे एक ज्ञानी ने ज्ञान झाड़ा, “मुर्गा मुर्गी की इज्जत लूटना चाहता था। मुर्गी ने जान दे दी। लेकिन इज्जत नहीं दी और मारी गई। ब्राह्मणों यादवों के सम्बंध में ऐसा ज्ञानवर्द्धन (?) बहुत कुछ ऐसा ही है।उपदेश बड़ा मूल्यवान होता है। यह देश का निकटवर्ती है। उप का अर्थ है निकट। जैसे राष्ट्रपति का निकटवर्ती उपराष्ट्रपति, प्रधान का निकटवर्ती उपप्रधान। मैं पूर्व विधायक को उपदेश नहीं दे सकता। वे सही बात भी नहीं सुनेंगे, क्योंकि मैं जन्मतः ब्राह्मण हूं। भारत में ब्राह्मणों की भारी जनसंख्या है। सही संख्या जाति जनगणना से पता चलेगी। सत्य के शोध और बोध की कार्रवाई में संख्या का कोई महत्व नहीं होता। मूर्खता की जांच का कोई पैमाना नहीं है। मूर्खता सरलता और मासूमियत का परिणाम भी हो सकती है और जानबूझकर की गई कार्रवाई भी। ब्राह्मणों को देश से बाहर करने या यादवों को यहूदी बताने का आग्रह करने वाले इसी किसी श्रेणी में हो सकते हैं। ब्राह्मण वर्ग का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में मिलता है। मार्क्सवादी विचारक डा. रामबिलास शर्मा ने बताया है कि, ”ऋग्वेद में वर्ग वर्ण के अर्थ में ब्राह्मण शब्द का प्रयोग सिर्फ एक बार हुआ है। बाकी स्थानों पर ब्राह्मण का अर्थ काव्य स्तुति है। ब्राह्मण एक समूह या वर्ण/वर्ग बाद में बने। पूर्व वैदिक काल और वैदिक काल में जाति, वर्ण नहीं थे। सामाजिक विकास की कार्रवाई में श्रम का विभाजन/विशिष्टीकरण होता है। वर्गों का विकास होता है। समाज का ज्ञानवर्द्धन करने वाले, रक्षा, सुरक्षा, विधि व्यवस्था लागू करने व प्रत्यक्ष उत्पादन करने वाले वर्ग बनते हैं। वस्तुओं के रूप, गुण, स्थान में परिवर्तन करने वाले वर्ग वैश्य/व्यापारी कहे जाते हैं। उत्पादन और प्रत्यक्ष हुनरबंद लोगों का भी अलग वर्ग बनता है। सारी दुनिया के समाजों में वर्गों का विकास हुआ है। भारत में वर्ग का नाम वर्ण हो गया।

उत्तर वैदिक काल में संपूर्ण अस्तित्व को ब्रह्म कहा गया था। ब्रह्म संपूर्णता है। वेदों और संपूर्णता की व्याख्या में लिखे गए ग्रंथ ’ब्राह्मण’ कहे गए। शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण आदि प्रमुख हैं। ज्ञान ग्रंथों के लिए प्रयुक्त ’ब्राह्मण’ शब्द इसी शोध से जुड़े वर्ग के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। यह कब जाति बना? पता नहीं? डॉक्टर बी. आर. आम्बेडकर ने भी यही कहा है कि इसका अनुमान ही किया जा सकता है। जाति उद्भव पर डॉ० आम्बेडकर का विवेचन सही है।

कुछ मूलभूत प्रश्न है कि राजनीति ब्राह्मणों पर क्यों हमलावर रहती है? क्या स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले महानुभावों में इनकी संख्या कम है? दुनिया क¨ दर्शन का ज्ञान देने वाले अधिकांश भारतवासी किस वर्ग के थे? कार्ल मार्क्स ने ‘मार्क्स ऐंगल्स-दि फस्र्ट इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस‘ (पृष्ठ 37) में 1853 में लिखा था, ”हम निश्चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में, उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी, राजकुमार साल्टिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में ‘इटालियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं‘, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अंग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्म का उद्गम है, और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरुप जाट में, प्राचीन यूनानी का स्वरुप ब्राह्मण में प्रतिबिंबित है।”

कोई भी समाज व्यवस्था स्वयं पूर्ण नहीं होती। सामाजिक परिवर्तन जरूरी हैं। उसकी दिशा का निश्चय जरूरी है। भारत का समाज डॉ० आम्बेडकर से प्रेरित होना चाहिए और भारत के लोग होने चाहिए गाँधी जैसे। स्वप्न डॉ० हेडगेवार जैसे-इसी जीवन में-‘याचि देहि याचि डोला‘। इसी जीवन में राष्ट्र का परम वैभव। सृजन, मनन, चिंतन वैदिक पूर्वजों जैसे। इस राष्ट्रधर्म निर्वहन में डीएनए की चर्चा अनावश्यक है। आइए ऋग्वेद के अंतिम सूक्त के एक मंत्र को साथ साथ गाएं, ”ओम संगछध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम/देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते-हम सब साथ साथ चलें, साथ साथ वार्तालाप करें, सब के विचार एक हों। साथ साथ उपासना करें, साथ साथ कर्म करें।” ऐसे ही हमारे पूर्वजों ने भी उपासनाएँ की हैं।

लेखक – हृदयनारायण दीक्षित ( वरिष्ठ पत्रकार )

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