आज आरएसएस (RSS) के दूसरे सर संघचालक माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर (Madhavrao Sadashivrao Golwalkar) की पुण्यतिथि (Death Anniversary) है. डॉ. हेडगेवार के बाद संघ की कमान उन्होंने ही संभाली थी. आरएसएस कार्यकर्ताओं के बीच उनको ‘गुरू जी’ के नाम से जाना जाता था. आज भी संघ में वह इसी नाम से जाने जाते हैं. गोलवलकर को एक सन्यासी योद्धा के रूप में जाना जाता है. गोलवलर ने कश्मीर के भारत विलय में अहम भूमिका निभाई थी, ये अलग बात है कि इतिहासकरों ने कभी इसका उन्हें श्रेय नहीं दिया. गुरूजी की जयंती पर आइए जानते हैं उनके बारे में..
गोलवलकर का का जन्म 19 फरवरी, 1906 (विजया एकादशी) को हुआ था और उनकी मृत्यु 5 जून 1973 में हुई थी. उनके पिता सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे. उन्हें बचपन में सब प्रेम से माधव कहते थे. माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे. उन्होंने सभी परीक्षाएं सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं. कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे. अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलेंगे. एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब उन्हें बुलाया गया उन्होंने आसानी से वह प्रश्न हल कर दिया.
वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी खूब पढ़ते थे. नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलिज में प्रधानाचार्य गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे. एक बार गुरुजी ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया. जब बाइबिल मंगाकर देखी गयी, तो उनकी बात ठीक थी. इसके अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बांसुरीवादन भी उनके प्रिय विषय थे. उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ. वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे. जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप के बाद गुरुजी का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया. एम. एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिए मद्रास गए लेकिन वहां का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये.
उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय भी उनसे बहुत प्रेम करते थे. कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की. उन दिनों उनका संपर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये. वहां उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द से दीक्षा ली.
स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये. उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया. अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा. 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के शरीर त्यागने के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने. उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी.
विरोधी विचार के लोग भी करते रहे सम्मान
गुरु गोलवलकर को लोग हिंदू राष्ट्र के लिए संगठन करने वाला बताते हैं. बहुत से लोग उनके विचारों का विरोध करते हैं, लेकिन जानकर हैरत होगी कि उनके बिल्कुल उलट विचारधारा वाले वामपंथी हों, नास्तिक हों, मुसलमान विचारक हों या समाजवादी नेता गुरुजी से मिलने के बाद सब उनके प्रशंसक हो जाते थे. ईरानी मूल के डॉ. सैफुद्दीन जीलानी ने गुरुजी से हिन्दू-मुसलमानों के विषय में बात करने के बाद कहा, ‘मेरा निश्चित मत हो गया है कि हिन्दू-मुसलमान प्रश्न के विषय में अधिकार वाणी से यथोचित मार्गदर्शन यदि कोई कर सकता है तो वह श्री गुरुजी हैं.’
कम्युनिस्ट बुध्दिजीवी और पश्चिम बंगाल सरकार के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. अशोक मित्र ने कहा, ‘हमें सबसे अधिक आश्चर्य में डाला श्री गुरुजी ने. उनकी उग्रता के विषय में बहुत सुना था, किंतु मेरी सभी धारणाएं गलत निकलीं, इसे स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं कि उनके व्यवहार ने मुझे मुग्ध कर लिया.’ देश में समाजवाद के सबसे बड़े नेताओं में एक लोकनायक जय प्रकाश नारायण भी गुरुजी के लिए सम्मान का भाव रखते थे. उनके मुताबिक पूज्य महात्मा गांधी और उनसे पूर्व जन्मे देश के महापुरुषों की परंपरा में ही पूज्य गुरुजी का भी जीवन था.
प्रसिद्ध पत्रकार और संपादक खुशवंत सिंह ने गुरुजी के साथ अपनी मुलाकात के बारे में द इलेस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया में विस्तार से लिखा. लेख में सिंह ने माना कि गुरुजी से मिलकर बहुत सारी शंकाओं का समाधान मिला. उन्होंने लिखा, ‘ चेहरे पर एक स्थायी मुस्कान और चश्मे से झांकतीं दो चमकदार आंखें. देखने में वे भारतीय हो ची मिन जैसे हैं. मैं जैसे ही उनके पैर छूने के लिए झुका, उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिए और अपने बगल में लगे आसन पर बैठाया. इंटरव्यू के बाद मैं जब जाने की आज्ञा मांगने लगा तो उन्होंने फिर मेरे हाथ पकड़ लिए ताकि मैं उनके चरण न छू पाऊं’ लेख के अंत में खुशवंत सिंह ने लिखा, ‘ क्या मैं उनसे प्रभावित था? मैं स्वीकार करता हूं, मैं (उनसे) प्रभावित था.’
गांधी हत्या के वक्त का हाल
महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ को काफी दिक्कतों को झेलना पड़ा. इस मामले में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल की ओर से बिना शर्त प्रतिबंध हटाने और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में गांधी हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं होने के बावजूद राजनीतिक तौर पर यह आरोप लगाया जाता रहा है.
जब गांधीजी की हत्या का समाचार गुरुजी को मिला तब वह चेन्नई ( तब मद्रास) में थे. इस बारे में गुरुजी गोलवलकर के जीवनीकार सीपी भिषीकर ने लिखा है, ‘उस समय गोलवलकर के हाथ में चाय का प्याला था, जब किसी ने उन्हें गांधी की हत्या का समाचार दिया. चाय का प्याला रखने के बाद गोलवलकर बहुत समय तक कुछ भी नहीं बोले.’ फिर उनके मुंह से एक वाक्य निकला, ‘कितना बड़ा दुर्भाग्य है इस देश का!’ इसके बाद उन्होंने अपना बाकी का दौरा रद्द कर दिया और पंडित नेहरू, सरदार पटेल को संवेदना का तार भेज कर वापस नागपुर आ गए.”
गूरूजी गिरफ्तार, 6 महीने बाद बाइज्जत बरी
गुरुजी को 1 फरवरी, 1948 की आधी रात को नागपुर पुलिस ने गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. पुलिस जीप में बैठने से पहले उन्होंने अपने समर्थकों से कहा था, “संदेह के बादल जल्द ही छंट जाएंगे और हम बिना किसी दाग के बाहर आएंगे.’ उनके सहयोगी भय्याजी दानी ने संघ की सभी शाखाओं को तार भेजा, ‘गुरुजी गिरफ्तार. हर कीमत पर शांत रहें.’ छह महीने बाद संघ से प्रतिबंध हटा लिया गया और गुरुजी बाइज्जत रिहा हो गए.
गांधी की हत्या के बाद ब्राह्मणों पर हुए अत्याचार तब भी कार्यकर्ताओं को शांत रखा
गांधी हत्या के बाद जब महाराष्ट्र में गोडसे की जाति (ब्राह्मण) के लोगों पर अत्याचार हुए. संघ कार्यालय पर हमले हुए. तब भी गुरुजी ने अपने कार्यकर्ताओं को संयम और धैर्य से रहने के लिए कहा. देश भर में प्रतिकूल माहौल में भी संघ के काम को आगे बढ़ाया.
नेहरू की नीतियों से जटिल हो गया कश्मीर मुद्दा
अक्सर वामपंथी गुरुजी पर हिटलर के प्रति सहानुभूति रखने का आरोप लगाते हैं. वे आरएसएस को एक फासीवादी संगठन बताते हैं, जो कि हास्यास्पद है. लेकिन इस सच को भुलाया नहीं जा सकता कि गुरुजी के प्रयासों से ही कश्मीर को भारत का हिस्सा बना पाना संभव हो सका. जम्मू-कश्मीर का मुद्दा तब खड़ा हुआ, जब देश के विभाजन की घोषणा हुई. पाकिस्तान कश्मीर को एक रत्न मानता था और इसे हर हाल में अपने साथ मिलाना चाहता था, क्योंकि कश्मीर को ‘धरती का स्वर्ग’ कहा गया है. लौहपुरुष कहे जाने वाले देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके सेक्रेटरी वीपी मेनन के अथक प्रयासों से 500 से भी ज्यादा रजवाड़े भारत में मिलाए गए. जवाहरलाल नेहरू कश्मीर की समस्या को खुद सुलझाना चाहते थे, लेकिन सुलझाने की जगह उन्होंने इसे और भी जटिल बना दिया.
कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह की थी तैयारी
जिन्ना जम्मू-कश्मीर के राजा पर पाकिस्तान से मिलने का दबाव बना रहे थे. इधर, शेख अब्दुल्ला अलग से उन पर दबाव डाल रहे थे, जिन्हें जवाहरलाल नेहरू का समर्थन हासिल था. वास्तव में, कश्मीर में पाकिस्तान के समर्थन में आंदोलन जोर पकड़ रहा था और बड़े पैमाने पर हथियार तस्करी के जरिए राज्य में लाए जा रहे थे, ताकि सशस्त्र विद्रोह किया जा सके. यहां तक कि लॉर्ड माउंटेबटन भी कश्मीर गए और उन्होंने राजा हरि सिंह से पाकस्तान में कश्मीर को मिलाने के लिए कहा. लेकिन कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री आरसी काक ने हरि सिंह से राज्य की स्वतंत्रता कायम रखने को कहा. इस सबसे हरि सिंह बहुत उलझन की स्थिति में पड़ गए. उनके सामने तीन विकल्प थे. पहला पाकिस्तान से मिल जाना, दूसरा भारत का हिस्सा बनना और तीसरा स्वतंत्र रहना.
नेहरू पर भरोसा नहीं करते थे हरि सिंह
हरि सिंह कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाना चाहते थे. वे राज्य को भारत का हिस्सा भी नहीं बनाना चाहते थे. उन्हें नेहरू और शेख अब्दुल्ला पर भरोसा नहीं था. लेकिन वे स्वतंत्र भी नहीं रह सकते थे, क्योंकि उन्हें पाकिस्तान के हमले का डर था. उनके पास राज्य की सुरक्षा के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे.
गुरूजी ने हरि सिंह को कश्मीर के भारत में विलय के लिए मनाया
जब हरि सिंह के समझाने के नेताओं के सारे प्रयास विफल हो गए तो सरदार पटेल ने गुरुजी को एक जरूरी संदेश भेज कर उनसे हरि सिंह को समझाने का आग्रह किया. यह संदेश मिलते ही गुरुजी ने दूसरे सारे काम छोड़ दिए और तत्काल कश्मीर के लिए निकल पड़े. वहां जाकर उन्होंने हरि सिंह से मुलाकात की और उन्हें कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के लिए राजी किया. इस मीटिंग के बाद हरि सिंह ने तुरंत राज्य को भारत में मिलाने का प्रस्ताव दिल्ली भेजा, लेकिन गुरुजी को यह एहसास हो गया था कि कश्मीर को भारत का हिस्सा बना पाना बहुत आसान नहीं होगा. इसलिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर के सभी आरएसएस कार्यकर्ताओं से कहा कि वे कश्मीर की सुरक्षा के लिए तब तक लड़ने को तैयार रहें, जब तक उनके शरीर में खून की आखिरी बूंद बचे.
गोलवलकर से प्रभावित थे नेहरू
चीन के साथ युद्ध 1962 में संघ ने नागरिक प्रशासन में शानदार भूमिका निभाई. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इससे काफी प्रभावित हुए. उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों को पूरे गणवेश (यूनिफॉर्म) और घोष (बैंड) के साथ साल 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए बुलाया. उन्होंने परेड देखने के बाद प्रसन्नता भी जाहिर की.
इंदिरा गांधी ने बताया था प्रभावशाली व्यक्तित्व
साल 1965 के युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने गुरुजी को सलाह के लिए बुलाया था. इंदिरा गांधी की गुरुजी से मुलाकात की कोई बात सामने नहीं आई, लेकिन एमपी के पूर्व सीएम बाबूलाल गौर के मुताबिक अटल जी ने साल 1971 में बांग्लादेश मामले में इंदिरा गांधी की गुरुजी से फोन पर बात करवाई थी. उनके निधन पर इंदिरा गांधी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, ‘वे विद्वान, शक्तिशाली और आस्थावान थे. अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और अपने विचारों के प्रति अटूट निष्ठा के कारण राष्ट्र-जीवन में उनका महत्वपूर्ण योगदान था.
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