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जब पं दीनदयाल उपाध्याय ने कहा- मुझे बधाई न दें, यह मेरा नववर्ष नहीं है

आज भारत भले ही नववर्ष धूमधाम से मना रहा हो, लेकिन इसी देश में एक बहुत बड़ा वर्ग इस नववर्ष को मान्यता नहीं देता है. इस वर्ग के अपने तर्क और तथ्य हैं जो एक तरह से उचित भी हैं. इसे इस देश की सहिष्णुता ही कहिये इसने सदैव सभी धर्मों के उत्सवों को समभाव से स्वीकारा है. इस नववर्ष से जुड़ा जनसंघ के संस्थापक और ‘एकात्म मानववाद’ का संदेश देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एक किस्सा है जो बेहद चर्चित हुआ था.

 

दरअसल ये किस्सा सन 1973 कानपुर का है, जब वे छात्र जीवन में थे और कानपुर के सनातन धर्म विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. तब विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक ने 1 जनवरी को कक्षा में सभी विद्यार्थियों को नए साल की बधाई दी. दीनदयाल जानते थे कि अध्यापक पर अंग्रेजी संस्कृति का बेहद प्रभाव है, इसीलिए दीनदयाल ने अध्यापक की बधाई पर भरी कक्षा में तपाक से कहा आपके स्नेह के प्रति मेरा सम्मान है आचार्य जी, किन्तु मैं इस नव वर्ष की बधाई नहीं स्वीकारुंगा क्योंकि यह मेरा नववर्ष नहीं है. यह सुनकर वहां मौजूद सभी छात्र स्तब्ध रह गए.

 

दीनदयाल ने जब बोलना शुरू किया सब निशब्द होकर केवल उन्हें सुनते ही रहे. उन्होंने कहा मेरी संस्कृति के नववर्ष पर तो प्रकृति भी ख़ुशी से झूम उठती है, और यह गुड़ी पड़वा पर आता है. दीनदयाल की बाते सुनकर उनके अध्यापक भी सोचने को मजबूर हो गए और उसके बाद उन्होंने भी कभी अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनाया.

 

बता दें कि राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले दीनदयाल उपाध्याय का यही उद्देश्य था कि वे अपने राष्ट्र भारत को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक क्षेत्रों में बुलंदियों तक पहुंचा देख सकें. वे जातिपात और मजहब की राजनीति के घोर विरोधी और एक सच्चे राष्ट्रवादी थे.

 

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