बिहार (Bihar) की धरती ने कई नायकों को जन्म दिया, लेकिन कर्पूरी ठाकुर जैसा जननायक कोई और नहीं। उनकी जिंदगी एक ऐसी किताब है, जिसका हर पन्ना सादगी, ईमानदारी और जनता के प्रति समर्पण की कहानी कहता है। 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर के पितौझिया (अब कर्पूरी ग्राम) में एक साधारण नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर की 101वीं जयंती पर आज हम उनकी जिंदगी के उन अनमोल किस्सों को सुनाने जा रहे हैं, जो उनकी महानता को दर्शाते हैं। ये किस्से किताब ‘द जननायक कर्पूरी ठाकुर: वॉयस ऑफ वॉइसलेस’ से प्रेरित हैं, जिसे संतोष सिंह और आदित्य अनमोल ने लिखा है।
बचपन में कर्पूरी ठाकुर की जिंदगी आसान नहीं थी। स्कूल की फीस जमा करना उनके लिए किसी जंग से कम नहीं था। एक बार जब फीस के लिए पैसे नहीं थे, तो छोटे कर्पूरी गांव के एक जमींदार के पास मदद मांगने गए। जमींदार ने पैसे देने से पहले शर्त रखी, “पैसे चाहिए तो मेहनत करो!” उन्होंने कर्पूरी को 27 बाल्टियाँ पानी भरने का काम सौंपा। नन्हा कर्पूरी हार नहीं माना। उसने एक-एक बाल्टी पानी भरी, पसीना बहाया, और आखिरकार फीस के लिए पैसे जुटाए। यह किस्सा सिर्फ उनकी मेहनत ही नहीं, बल्कि उनके आत्मसम्मान की भी कहानी है।
कर्पूरी ठाकुर के गांव पितौझिया में एक मशहूर शिक्षक थे, जिन्हें लोग “राजा गुरु जी” कहते थे। लेकिन वह सिर्फ सवर्ण बच्चों को पढ़ाते थे। कर्पूरी, जो नाई समुदाय से थे, ने उनसे पढ़ने की गुहार लगाई। सामाजिक दबाव के कारण राजा गुरु जी उन्हें खुले तौर पर पढ़ा नहीं सकते थे, लेकिन उन्होंने एक अनोखा रास्ता निकाला। उन्होंने कहा, “जब मैं पढ़ाऊँ, तुम खलिहान में पुआल के पीछे छुपकर बैठ जाना। मैं जोर-जोर से बोलूँगा, तुम सुन लेना।” कर्पूरी ने यही किया। पुआल में छुपकर, चुपके-चुपके, उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उनकी लगन ऐसी थी कि 1940 में जब पूरे गांव में सिर्फ पाँच लोग मैट्रिक पास हुए, उनमें कर्पूरी ठाकुर का नाम भी शामिल था।
कर्पूरी ठाकुर की सादगी के किस्से आज भी लोगों की जुबान पर हैं। एक बार उन्हें ऑस्ट्रिया और युगोस्लाविया के एक डेलीगेशन में शामिल होने का मौका मिला। लेकिन उनके पास ढंग का कोट तक नहीं था। उन्होंने अपने एक दोस्त से कोट उधार लिया, जो पुराना और फटा हुआ था। कर्पूरी ने उसी फटे कोट को पहनकर विदेश की यात्रा की। युगोस्लाविया में जब मार्शल टीटो ने उनका फटा कोट देखा, तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कर्पूरी को एक नया कोट तोहफे में दिया। यह किस्सा उनकी सादगी और आत्मविश्वास को दर्शाता है—वे कभी दिखावे के पीछे नहीं भागे।
कर्पूरी ठाकुर का असली नाम कपूरी ठाकुर था। लेकिन एक घटना ने उनका नाम बदल दिया। आठवीं कक्षा में पढ़ते वक्त, समस्तीपुर के कृष्णा टॉकीज के पास स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक सभा हो रही थी। स्वतंत्रता सेनानी रामनंदन मिश्रा का भाषण चल रहा था। कर्पूरी ने भी वहाँ अपनी बात रखी। उनका भाषण इतना प्रभावशाली था कि मिश्रा ने उनका नाम पूछा। जब कर्पूरी ने अपना नाम “कपूरी” बताया, तो मिश्रा ने कहा, “तुम कर्पूरी हो! तुम्हारी खुशबू दूर-दूर तक फैलेगी।” उस दिन से कपूरी, कर्पूरी ठाकुर बन गए। बाद में, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उन्हें “जननायक” की उपाधि दी, क्योंकि कर्पूरी ने जनता के लिए ऐसे काम किए, जो आज भी मील का पत्थर हैं।
कर्पूरी ठाकुर के आदर्श थे डॉ. राम मनोहर लोहिया। लेखक संतोष सिंह बताते हैं कि 1952 तक लोहिया कुछ खास नहीं कर पाए थे। लेकिन जब कर्पूरी ठाकुर उनके साथ जुड़े, तो लोहिया के विचारों को जमीन पर उतारने का काम शुरू हुआ। 1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के गठन के बाद कर्पूरी ने लोहिया के सपनों को हकीकत में बदला। लोहिया कहा करते थे, “अगर मुझे पाँच कर्पूरी ठाकुर मिल जाएँ, तो मैं देश बदल दूँगा।” कर्पूरी ने न केवल बिहार में, बल्कि पूरे देश में सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई को मजबूत किया।
1970 में जब कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने, तब उनके गांव में एक जमींदार ने उनके पिता गोकुल ठाकुर को जबरदस्ती बुलवाया। गोकुल ठाकुर तबीयत खराब होने के कारण नहीं जा सके, तो जमींदार ने अपने लठैतों से उन्हें पकड़वाया। जब यह बात पुलिस तक पहुँची, तो पुलिस जमींदार को गिरफ्तार करने पहुँच गई। लेकिन कर्पूरी ने पुलिस को फोन कर कहा, “उन्हें गिरफ्तार मत करो, वे हमारे गांव के हैं।” यह थी उनकी उदारता और मानवता, जो उन्हें सबसे अलग बनाती थी।
कर्पूरी ठाकुर की ईमानदारी की मिसालें भी कम नहीं हैं। एक बार चुनाव के लिए चंदा जुटाने वे एक बड़े बिजनेसमैन के पास गए। जब बिजनेसमैन ने पूछा, “कितना चंदा चाहिए? तो कर्पूरी ने कहा, पाँच हजार रुपये। बिजनेसमैन ने 50 हजार रुपये निकाल कर दिए, लेकिन कर्पूरी ने कहा, “पाँच हजार चंदा है, 50 हजार घूस।” उन्होंने सिर्फ पाँच हजार लिए और चले गए। एक दूसरी घटना में, दिल्ली में एक मित्र ने उन्हें 500 रुपये की जगह 1000 रुपये देने की कोशिश की, लेकिन कर्पूरी ने सिर्फ 750 रुपये ही स्वीकार किए।
कर्पूरी ठाकुर के पास कई रिश्तेदार नौकरी मांगने आते थे। एक बार एक करीबी रिश्तेदार ने उनसे नौकरी की गुहार लगाई। कर्पूरी ने उन्हें 50 रुपये दिए और कहा, कैंची और उस्तरा खरीद लो, नाई का काम शुरू करो। उनकी सोच थी कि मेहनत और आत्मनिर्भरता ही इंसान को आगे ले जाती है। यह किस्सा उनकी उस विचारधारा को दर्शाता है, जो सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ थी।
कर्पूरी ठाकुर की सादगी का एक और किस्सा मशहूर है। बतौर मुख्यमंत्री, वे रिक्शे पर चलते थे। उनके पास न दिखावे की चाह थी, न ऐशो-आराम की लालसा। उनकी जिंदगी का हर पल जनता के लिए समर्पित था। कर्पूरी ठाकुर की जिंदगी एक ऐसी मिसाल है, जो हर पीढ़ी को प्रेरित करती है। चाहे वह पुआल में छुपकर पढ़ाई करना हो, फटे कोट में विदेश जाना हो, या जनता के लिए नीतियाँ बनाना होउन्होंने हमेशा सादगी और ईमानदारी को अपनाया। उनकी नीतियों ने बिहार में सामाजिक न्याय की नींव रखी। आज उनकी 101वीं जयंती पर, कर्पूरी ठाकुर को याद करना सिर्फ उनकी कहानियों को दोहराना नहीं, बल्कि उनके आदर्शों को जीने की प्रेरणा लेना है।जननायक कर्पूरी ठाकुर की खुशबू आज भी बिहार की मिट्टी में बसी है। उनकी कहानियाँ हमें सिखाती हैं कि सच्चाई, मेहनत और जनसेवा से कोई भी मंजिल हासिल की जा सकती है।
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