पैगम्बर साहब जब मक्का छोड़कर मदीना आए तो उस समय वहां पर मदीने के लोग दो ईद मनाया करते थे। तब पैगम्बर साहब ने कहा कि ये लोग दो ईद मनाते हैं, तो तुम्हारे लिए भी मैंने दो ईद मुकर्रर की है। ईद-उल-अजहा और ईद-उल-फित्र। ईद-उल-फित्र रोजे के महीने के बाद आती है। वह रोजा खोलने की ईद होती है। उस वक्त लोगों ने पूछा कि ईद-उल-अजहा क्या चीज है, तो उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिता इब्राहीम का तरीका। अब देखें कि पिता इब्राहीम का तरीका क्या था।
वह तरीका यह था कि इब्राहीम इराक में पैदा हुए थे। उसके बाद वो अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर मक्का के करीब अरब में आ गए। इस तरह उन्होंने अपने परिवार को एक रेगिस्तान में आबाद कर दिया। यह उनकी असली कुर्बानी थी। दुंबे की कुर्बानी तो महज प्रतीक भर थी। असल बात तो अपने बेटे को रेगिस्तान में बसाना था। उसके पीछे मकसद यह था कि एक नई नस्ल, जो प्रकृति के माहौल में पैदा हो और माहौल की कंडीशनिंग से पाक हो। ऐसी नस्ल के लिए उस वक्त कुर्बानी की जरूरत थी। इसके बाद जो नस्ल तैयार हुई उसे एक इतिहासकार ने नेशन आॅफ हीरो कहा। ऐसे में जो जानवर की कुर्बानी प्रतीकात्मक तौर पर दी जाती है।
प्रतीकात्मक तौर पर तो वही रहेगा जो पहले था। उसमें कोई बदलाव नहीं होगा, लेकिन स्प्रिट बदलेगी। उस वक्त जो स्प्रिट के लिए इस सिंबल का इस्तेमाल किया गया था, उसमें यदि आज के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो आज हम आतंकवाद के संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे में आज सबसे बड़ी कुर्बानी है कि भटके हुए मुसलमान आतंकवाद को छोड़ दें। पूरी तरह शांतिप्रिय कौम बन जाएं। आतंकवाद को छोड़, शांतिप्रिय तरीके से अपने कार्य की योजना बनाएं। इसमें जो जज्बात है कि मुसलमानों को कुछेक शिकायतें हैं, तो उन शिकायतों को भुलाना पड़ेगा। यही असली कुर्बानी है। जिन शिकायतों को लेकर वो आतंकवाद चला रहे हैं, उनको भुलाकर पूरे तरीके से शांतिप्रिय समूह बन जाना होगा। मेरा मानना है कि सिंबल तो वही रहेगा लेकिन स्प्रिट जरूर बदलेगी। आज की स्प्रिट यह है कि शिकायतों को भुलाओ और शांतिप्रिय होकर जीना सीखो।
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