सुप्रीम कोर्ट ने सभी धर्मों के लिए एकसमान तलाक का आधार और गुजारा भत्ता किए जाने की म़ांग वाली याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है. याचिका में मांग की गई है कि देश के सभी नागरिकों के लिए संविधान की भावना के अनुरूप तलाक का एक आधार हो. यह याचिका बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय (Ashwini Upadhyay) ने दाखिल की है. अब केंद्र सरकार के जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट आगे की सुनवाई करेगी.
सुनवाई के दौरान CJI एस ए बोबडे ने कहा कि हम पर्सनल लॉ में कैसे अतिक्रमण कर सकते हैं. याचिका में तलाक के एक समान आधार की और महिलाओं को उनके धार्मिक संबद्धता के बावजूद गुजारा भत्ता देने में एकरूपता प्रदान करने की मांग की गई है. अश्विनी उपाध्याय की तरफ से जनहित याचिकाओं के लिए वरिष्ठ वकील पिंकी आनंद और मीनाक्षी अरोड़ा ने बहस की. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट केंद्र को नोटिस जारी किया.
याचिका के मुताबिक संविधान का आर्टिकल 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है और सभी कानूनों का बराबर संरक्षण करता है. संविधान का आर्टिकल 15 धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, स्थान और जन्म के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है, औऱ राज्यों को अधिकार देता है ताकि वे महिलाओं के लिए विशेष कानून बना सकें. संविधान का आर्टिकल 16 अवसर की समानता की गारंटी प्रदान करता है. आर्टिकल 21 जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी देता है. आर्टिकल 25 स्पष्ट करता है कि विवेक और स्वतंत्रता का अधिकार, धर्म का अभ्यास और उसका प्रसार एब्लोल्यूट नहीं है बल्कि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधीन हैं.
उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा कि आर्टिकल 38 राज्यों को सामाजिक स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानता को समाप्त करने का निर्देश देता है. आर्टिकल 39 राज्यों को निर्देशित करता है कि वे अपनी ऐसी पॉलिसी बनाएं जिसमें महिला-पुरूष को जीवनयापान करने के समान अधिकारों की सुरक्षा हो सके. आर्टिकल 44 राज्यों को एक समान नागरिक संहिता बनाने के लिए निर्देशित करता है. आर्टिकल 46 कमजोर वर्गों का आर्थिक हित और उनकी रक्षा करना, सामाजिक अन्याय और शोषण से रक्षा करने को निर्देशित करता है. इसके अलावा आर्टिकल 51 के तहत राज्य सद्भावना बढ़ाने, सभी नागरिकों में बंधुत्व की भावना, धार्मिक भाषाई, क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताएं, महिलाओं की गरिमा के प्रति अपमानजनक व्यवहार को छोड़ना और वैज्ञानिक सोच मानवतावाद तथा जांच और सुधार की भावना के लिए बाध्य है.
याचिकाकर्ता के मुताबिक 26.11.1949 को हम भारतीयों ने अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए पूरी तरह से एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष भारत का गठन करने का संकल्प लिया. सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक; विचारों की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा, सामाजिक स्थिति अवसर की समानता और सभी बिरादरी को बढ़ाना प्रत्येक इंसान की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित रखते हुए.हालांकि, उपरोक्त प्रावधान संविधान में अच्छी तरह से स्पष्ट होने के बावजूद केंद्र पूरे भारत में सभी नागरिकों के लिए “तलाक का एक समान आधार” प्रदान करें करने में विफल रहा. इसीलिए आर्टिकल 32 के तहत याचिकाकर्ता इस याचिका को दाखिल कर तलाक के आधार में विंसगतियों के दूर करने के लिए के लिए केंद्र को निर्देशित करने की मांग कर रहा है.
याचिका तलाक के आधार की विसंगतियों को दूर करने के साथ इसे सभी नागरिकों के लिए धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान तथा बिना किसी पूर्वाग्रह के आर्टिकल 14,15,44 और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना के साथ लागू करने की मांग कर रहा है. वैकल्पिक रूप से संविधान और मौलिक अधिकारों के संरक्षक होने के नाते माननीय न्यायालय यह घोषित कर सकता है कि भेदभावपूर्ण आधार पर तलाक आर्टिकल 14, 15, 21 और सभी नागरिकों के लिए तलाक के समान अधिकार नियम का उल्लंघन है. वैकल्पिक रूप से वैकल्पिक रूप से माननीय न्यायालय न्याय आयोग को तलाक के कानून को जांचने के लिए निर्देशित कर सकता है, तथा सभी नागरिकों के लिए तलाक के समान आधार के लिए 14,15,44 और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना को ध्यान में रखते हुए 3 महीने के भीतर करने का सुझाव दे सकता है.
याचिका के मुताबिक जनता को लगी चोट बड़ी है क्योंकि तलाक पुरुषों और महिलाओं के लिए सबसे दर्दनाक दुर्भाग्य है लेकिन आजादी के 73 साल बाद भी तलाक की प्रक्रिया बहुत जटिल हैं और न ही ये जेंडर न्यूट्रल और न ही धर्म न्यूट्रल है. हिंदुओं, सिखों, बुद्धों, औऱ जैनियों का तलाक हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के तहत होता है वहीं मुस्लिमों, पारसियों और ईसाइयों का तलाक उनके पर्सनल लॉ के तहत होता है. अलग-अलग धर्मों के पती-पत्नी को स्पेशल मैरिज एक्ट 1956 के अनर्तगत तलाक लेना पड़ता है, वहीं यदि यदि दोनों में से कोई एक विदेशी है तब उसे राष्ट्रीय विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के तहत तलाक लेना होगा. इसीलिए तलाक का आधार न तो जेंडर न्यूट्रल है, और न ही धार्मिक तौर पर न्यूट्रल है.
उदाहरण के तौर पर व्याभिचार हिंदुओं, पारसियों और ईसाइयों के लिए तलाक का आधार है लेकिन मुसलमानों के लिए नहीं, लाइलाज कोढ़ हिंदुओं के लिए तलाक का आधार है लेकिन मुसलमानों, ईसाइयों औऱ पारसियों के लिए नहीं है. नपुंसकता हिंदू और मुस्लिम के लिए तलाक का आधार लेकिन ईसाई और पारसियों के लिए नहीं. आयु विवाह के तहत हिंदुओं के लिए तलाक का एक आधार है लेकिन ईसाई, पारसी और मुसलमानों के लिए नहीं है. इसी तरह तलाक अलग-अलग आधार न तो जेंडर न्यूट्रल हैं और न ही रिलीजन न्यूट्रल हैं, हालांकि, इक्विटी, समानता और समान अवसर समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य हमारी पहचान है.
उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा कि वर्तमान समय में चल रहा भेदभाव पितृसत्तात्मक और स्टीरियोटाइप्स है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. जो प्रावधान इस भेदभाव के लिए जिम्मेदार हैं वे हैं हिंदू विवाह अधिनियम में 1869 की भारतीय तलाक अधिनियम की धारा 10. हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 13, स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 की धारा की धारा 27, पारसी मैरिज और तलाक अधिनियम 1936 की धारा 32, मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 की धारा 2 हैं. ये सभी प्रावधान तलाक के लिए समान आधार नहीं रहने देते जो कि संविधान की मूल भावना के विपरीत है, जिसे समाप्त करने लिए कोर्ट को केंद्र सरकार को निर्देशित करना चाहिए.
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