तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कांचीपुरम (Kanchipuram) में स्थित श्रीसन फार्मा कंपनी (Srisan Pharma Company) के कोल्ड्रिफ कफ सिरप (Coldrif Cough Syrup) ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है। छिंदवाड़ा और बैतूल जिलों में अब तक 19 मासूमों की जान जा चुकी है, जबकि कुछ बच्चे नागपुर के अस्पतालों में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। राज्य सरकार ने कार्रवाई के नाम पर सिर्फ एक डॉक्टर डॉ. प्रवीण सोनी को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या एक डॉक्टर ही 19 बच्चों की मौत का जिम्मेदार है, या पूरा सरकारी तंत्र नींद में था?
जांच में खुलासा हुआ कि कोल्ड्रिफ सिरप में 48.6% डायथिलीन ग्लाइकॉल (DEG) मिला था, वही जहरीला रसायन जिसने इन मासूमों की जान ले ली। DEG का उपयोग आमतौर पर औद्योगिक सॉल्वेंट्स में किया जाता है, लेकिन अगर यह दवाओं में मिल जाए, तो यह किडनी को क्षतिग्रस्त कर देता है और बच्चों की मौत निश्चित होती है।
यह कोई पहली बार नहीं है कि DEG ने बच्चों की जान ली हो। स्वास्थ्य विशेषज्ञ दिनेश ठाकुर और एडवोकेट प्रशांत रेड्डी की किताब ‘द ट्रुथ पिल’ में दर्ज है कि भारत में DEG की पहली त्रासदी 1972 में तमिलनाडु में हुई थी, जब 15 बच्चों की मौत हुई थी। इसके बाद भी यह जहर बार-बार वापसी करता रहा-
- 1972:तमिलनाडु में 15 बच्चों की मौत।
- 1998: दिल्ली में DEG से 33 बच्चों की मौत।
- 2019-20: जम्मू-कश्मीर में 12 बच्चों की जान गई।
- 2025: अब मध्य प्रदेश में वही भयावह कहानी दोहराई जा रही है।
पचास साल में सरकारें बदल गईं, सिस्टम बदला, लेकिन बच्चों की मौत का तरीका वही रहा जहरीला सिरप और सोया हुआ तंत्र। पहली मौत 4 सितंबर को हुई, लेकिन कार्रवाई तब शुरू हुई जब एक महीने बाद मामला मीडिया में आया। छिंदवाड़ा के तत्कालीन कलेक्टर शीलेन्द्र सिंह लगातार यह कहते रहे कि ‘मौत की वजह सिरप नहीं है।’ इस बीच दर्जनों परिवार अपने बच्चों को खो चुके थे। जब सबकुछ सामने आया, तो सरकार ने 30 सितंबर को कलेक्टर का तबादला कर दिया लेकिन 3 अक्टूबर तक वे दूसरी फाइलों में हस्ताक्षर करते रहे। सरकारी मशीनरी की यह सुस्ती बच्चों की मौतों की सबसे बड़ी वजह बनी।
अब केंद्र सरकार ने देशभर की दवा कंपनियों की जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन यह कदम भी मौतों के बाद उठाया गया। एडवाइजरी जारी करना ही सरकार की ‘सक्रियता’ मानी जा रही है, जबकि सवाल यह है कि जहर बाजार में पहुंचा कैसे? जब 50 वर्षों से DEG के घातक प्रभाव ज्ञात हैं, तो इसकी खुलेआम बिक्री कैसे होती रही? कौन निगरानी कर रहा था? और अगर कर भी रहा था, तो इतनी बड़ी चूक क्यों हुई?
मध्य प्रदेश के हटाए गए ड्रग कंट्रोलर दिनेश मौर्य कभी कलेक्टर तक नहीं रहे, लेकिन उन्हें इस संवेदनशील पद पर बैठा दिया गया। पहले इस पद पर वरिष्ठ आईएएस अधिकारी होते थे, लेकिन अब यह जिम्मेदारी ऐसे अफसरों को दी जा रही है, जिन्हें अनुभव नहीं, बल्कि सिफारिश का सहारा है। परिणाम, जहरीला सिरप बाजार में पहुंचा और सिस्टम तमाशा देखता रहा। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच चुका है। लेकिन यहाँ भी एक बड़ा सवाल है। जब तमिलनाडु सरकार की रिपोर्ट ने DEG की अधिक मात्रा की पुष्टि की, तभी केंद्र ने आंखें खोलीं। इससे पहले केंद्र सरकार ने तो सिरप की गुणवत्ता को ‘सही’ करार दे दिया था! क्या यह किसी बड़े षड्यंत्र की ओर इशारा नहीं करता?
जब बच्चे मर रहे थे, तब छिंदवाड़ा के औषधि विभाग ने दवा के सैंपल डाक से भोपाल भेजे, जो तीन दिन बाद पहुंचे। सोचिए, अगर जांच समय पर होती, तो कितनी जानें बच सकती थीं। लेकिन यहाँ भी फाइलें चलती रहीं, नोटिंग होती रही, और कब्रें भरती रहीं। इन बच्चों की मौतें किसी एक डॉक्टर की गलती नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की सामूहिक नाकामी हैं। सरकार सफाई दे रही है, विपक्ष बयानबाजी कर रहा है, लेकिन जिन मां-बाप ने अपने बच्चों को खो दिया। उनकी जिंदगी अब कभी वैसी नहीं होगी।
इन मासूमों की मौत किसी एक डॉक्टर या कंपनी की गलती नहीं। यह पूरे सिस्टम की सामूहिक नाकामी है। सरकार सफाई देने में लगी है, नेता बयानबाजी में, और परिवार अपने बच्चों की तस्वीरों से बातें कर रहे हैं। यह हादसा नहीं, यह सरकारी लापरवाही से हुई सामूहिक हत्या है। अगर अब भी सरकार और सिस्टम नहीं जागे, तो अगला ‘कफ सिरप’ फिर किसी मां की गोद उजाड़ देगा और हम फिर वही सवाल पूछेंगे, ‘क्यों नहीं जागा सरकारी तंत्र?’