जातीय रैलियों पर रोक: उत्तर प्रदेश की राजनीति और लोकतंत्र पर बड़ा सवाल

UP: उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में एक आदेश जारी किया है जिसमें जातीय रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है। कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार की ओर से जारी इस शासनादेश में न केवल जातीय रैलियों और सम्मेलनों पर रोक की घोषणा की गई है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि सार्वजनिक स्थलों, वाहनों, साइनबोर्ड और यहां तक कि इंटरनेट व सोशल मीडिया पर भी जाति आधारित नारे, प्रतीक और सामग्री साझा करने पर कार्रवाई की जाएगी।
यह आदेश अपने आप में एक ऐतिहासिक कदम कहा जा सकता है, लेकिन इसके राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ इतने सरल नहीं हैं। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां जाति राजनीति की धुरी है और जहाँ की चुनावी राजनीति ‘जाति समीकरण’ के इर्द-गिर्द घूमती है। इस संपादकीय-विश्लेषण में हम इस फैसले के बहुआयामी पहलुओं को समझेंगे।
जाति और भारतीय राजनीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
  • भारतीय समाज में जाति व्यवस्था सदियों से गहराई तक जड़ें जमाए हुए है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई बताते हुए कहा था, जाति व्यवस्था सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र के लिए घातक है। संदर्भ, अंबेडकर, Annihilation of Caste, 1936
  • आज़ादी के बाद जब लोकतांत्रिक ढांचा स्थापित हुआ, तो संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए। लेकिन व्यवहारिक स्तर पर जाति अब भी राजनीतिक लामबंदी का सबसे मजबूत आधार बनी रही।
  • 1950–60 के दशक में कांग्रेस पार्टी ने जातीय संतुलन के आधार पर टिकट वितरण की राजनीति शुरू की। इसके बाद 1980 और 1990 का दशक मंडल आयोग और उसकी सिफारिशों संदर्भ: मंडल आयोग रिपोर्ट, 1980; लागू 1990 के बाद जातीय राजनीति का निर्णायक दौर साबित हुआ। समाजवादी पार्टी (सपा) ने यादवों और अन्य पिछड़ी जातियों को संगठित किया, तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने जाटवों और दलितों को एक राजनीतिक शक्ति में बदला।
  • राजनीति विज्ञानी पॉल ब्रास (Paul Brass) और आंद्रे बेटेयल (Andre Béteille) ने अपनी रचनाओं में लिखा है कि भारतीय राजनीति में जाति सिर्फ सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि सत्ता का स्थायी औजार है। (Béteille, “Caste, Class and Power, 1965)
पंचायत चुनाव और जातीय लामबंदी
  • सरकार का यह आदेश ऐसे समय आया है जब पंचायत चुनाव नज़दीक हैं। पंचायत चुनाव उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे ‘जाति-प्रधान’ माने जाते हैं।
  • 2015 और 2021 के पंचायत चुनावों के परिणाम दर्शाते हैं कि ग्राम प्रधान से लेकर जिला पंचायत अध्यक्ष तक उम्मीदवारों का चयन जातिगत समीकरणों पर आधारित होता है (संदर्भ: यूपी राज्य निर्वाचन आयोग की पंचायत चुनाव रिपोर्ट्स)।
  • गाँव-कस्बों में वोटिंग पैटर्न इस कदर जाति-आधारित है कि उम्मीदवार अक्सर अपने जातीय समूह के मतदाताओं के दम पर जीत सुनिश्चित करते हैं।
  • ऐसे में जातीय रैलियों पर रोक से पंचायत चुनावों का समीकरण पूरी तरह बदल सकता है।
सरकार का पक्ष: सामाजिक समरसता की पहल
सरकार का कहना है कि यह आदेश समाज में जातिगत भेदभाव और विभाजन को खत्म करने के उद्देश्य से लिया गया है। आदेश में कहा गया है कि:
  • जाति आधारित रैलियां, सम्मेलन और राजनीतिक आयोजन वर्जित होंगे।
  • इंटरनेट व सोशल मीडिया पर जाति आधारित कंटेंट साझा नहीं किया जाएगा।
  • प्रशासनिक और पुलिस अभिलेखों से जाति का उल्लेख हटाया जाएगा।
  • सार्वजनिक स्थानों, वाहनों और साइनबोर्ड से जाति-सूचक प्रतीक व नारे हटाए जाएंगे।
यदि इसे सख्ती से लागू किया जाता है तो यह सामाजिक समरसता की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकता है। जाति की राजनीति को समाप्त कर ‘राष्ट्र और नागरिक’ की पहचान को प्राथमिकता देना लोकतांत्रिक समानता के आदर्श से मेल खाता है।
विपक्ष की आपत्ति: लोकतंत्र पर प्रहार
  • विपक्षी दलों ने इसे लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रहार बताया है।
  • समाजवादी पार्टी का कहना है कि जाति पहचान को दबाना दरअसल पिछड़े वर्गों और दलितों की आवाज़ दबाना है।
  • बहुजन समाज पार्टी के लिए तो यह सीधा झटका है, क्योंकि पार्टी की राजनीति ही दलित रैलियों और जनसभाओं पर टिकी है।
  • विपक्ष का आरोप है कि सरकार ने यह आदेश “पीडीए” (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) गठजोड़ के उभार को रोकने के लिए लाया है।
विपक्ष का तर्क
विपक्ष का तर्क है कि लोकतंत्र में प्रत्येक समूह को अपनी पहचान के साथ संगठित होने और अपनी बात रखने का अधिकार है। यदि जातीय रैलियों पर ही रोक लगा दी जाएगी तो लोकतंत्र के भीतर बहुलतावाद और प्रतिनिधित्व कैसे बचेगा?
व्यावहारिक चुनौतियाँ
यह आदेश कितना लागू होगा, यह एक बड़ा प्रश्न है।
  • इंटरनेट नियंत्रण: लाखों फेसबुक पेज, यूट्यूब चैनल और व्हाट्सऐप ग्रुप जातीय राजनीति पर सक्रिय हैं। प्रशासन इन्हें कैसे नियंत्रित करेगा?
  • जमीनी हकीकत: गाँव-कस्बों में जाति सिर्फ राजनीति नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों, शादियों और रोज़मर्रा के व्यवहार का हिस्सा है। इसे रैलियों या नारे हटाने भर से खत्म नहीं किया जा सकता।
  • प्रशासनिक अभिलेख: पुलिस और प्रशासनिक दस्तावेज़ों से जाति का उल्लेख हटाना व्यावहारिक कठिनाई पैदा करेगा, क्योंकि कई सरकारी योजनाएं जाति-आधारित आरक्षण और लाभ पर टिकी हैं।
लोकतंत्र और जाति की खींचतान
भारतीय लोकतंत्र ने जातियों को प्रतिनिधित्व का मंच दिया है। मंडल राजनीति ने पिछड़े और दलित समाज को सत्ता में हिस्सेदारी दी। लेकिन साथ ही जाति ने लोकतंत्र को विभाजित भी किया। प्रख्यात राजनीतिक विश्लेषक क्रिस्टोफ जेफ़रलॉट (Christophe Jaffrelot) ने लिखा है, जातीय राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र को गहराई दी है क्योंकि इसने हाशिए पर खड़े समूहों को शक्ति दी, लेकिन इसने जातीय पहचान को स्थायी बना दिया।(India’s Silent Revolution, 2003) यानी जाति राजनीति को लोकतंत्र में भागीदारी का माध्यम भी बनाती है और विभाजन का औजार भी।

 

सकारात्मक प्रभाव जातीय नारे और प्रतीकों पर रोक से समाज में समरसता का माहौल बन सकता है। राजनीतिक दलों को जाति से ऊपर उठकर मुद्दा-आधारित राजनीति करनी होगी। युवाओं में जातीय पहचान की जगह रोजगार और विकास के मुद्दे केंद्र में आ सकते हैं।हाशिए पर खड़े समूहों की आवाज़ कमजोर हो सकती है।विपक्ष के लिए यह लोकतंत्र को एकरूपता में बदलने का प्रयास है।सोशल मीडिया पर पाबंदियों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठेंगे।

उत्तर प्रदेश में जातीय रैलियों पर रोक का आदेश एक साहसिक और विवादास्पद कदम है। यह समाज में समानता और समरसता लाने का दावा करता है, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं।यह आदेश यदि सख्ती से लागू होता है तो जातीय राजनीति को हिला सकता है। लेकिन यदि यह केवल कागज़ी आदेश बनकर रह गया तो यह राजनीति की एक और ‘रणनीतिक चाल’ माना जाएगा।अंततः, असली सवाल यही है, क्या सचमुच जाति को राजनीति से अलग किया जा सकता है?या यह आदेश भी लोकतंत्र की उस खींचतान का हिस्सा है जहां सत्ता की मजबूरी और समाज की वास्तविकता टकराती है?

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