Janmashtami 2021: रोंगटे खड़े कर देगा ये प्रसंग, जब कृष्ण ने दुर्योधन से कहा- याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा

भगवान श्री कृष्णा का पावन पर्व जन्माष्टमी (Shri Krishna Janmashtami) आज देशभर में धूमधाम से मनाया जा रहा है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह त्यौहार भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. कान्हा जी के भक्त यह पर्व बहुत ही हर्ष और उमंग से मनाते हैं. इस दिन भक्तों द्वारा श्री कृष्ण के भजन-कीर्तन आयोजित किए जातें हैं. श्री कृष्ण को बचपन से ही माखन , दूध एवं दही बहुत पसंद था जिसके लिए वह अन्य घरों में भी छुपकर माखन खाया करते थे. इसी दृश्य का प्रतिनिधित्व करते हुए नन्हे एवं युवा बालकों द्वारा दही- हांड़ी का आयोजन भी होता है.


जन्‍माष्‍टमी (Janmashtami) का त्योहार भारत ही नहीं दुनियाभर में बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. भगवान कृष्ण (Krishna) के जन्मदिन का विशेष महत्व है. इस दिन कृष्ण की पूजा होती है, भगवान को माखन का भोग लगाया जाता है. वहीं, मंदिरों में झांकियां निकाली जाती हैं. कृष्‍ण का स्वरूप इतना विराट है कि इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती. भगवान कृष्‍ण के कई प्रसंग काफी मशहूर हैं. उनमें ये एक प्रसंग के बारे में हम आपको बताने जा रहे है.


दरअसल, भगवान कृष्ण से जुड़ा एक मशहूर प्रसंग तब का है जब पांडव 12 वर्ष के वनवास और एक साल का अज्ञातवास काटने के बाद कृष्ण पांडवों और कौरवों के बीच छिड़े युद्ध को रोकने के लिए कौरवों की सभा में जाते हैं. इस दौरान कृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि यदि आधा राज्य न दे पाओ तो 5 गाँव ही दे दो पांडव इसी में खुश हो जायेंगे. इतना सुनते ही दुर्योधन भड़क जाता है और कहता है कि मैं पांडवों को सुई की नोक के बराबर भी हिस्सा नहीं दूंगा. दुर्योधन दृष्टता दिखाते हुए अपने सिपाहियों को भगवान कृष्ण को बंदी बनाने का आदेश देता है. यह सुनते ही भगवान आगबगूला हो जाते हैं और दुर्योधन को चेतावनी देते हैं जिसका प्रसंग काफी मशहूर है.


इस प्रसंग पर कवि रामधारी सिंह दिनकर ने कविता भी लिखी थी. दिनकर के महाकाव्य ‘रश्मिरथी’ के तीसरे सर्ग में इस पूरे प्रसंग की बेहद सुंदर व्याख्या की गई है. दिनकर के शब्दों को कई लोगों ने अपनी आवाज दी लेकिन यह प्रसंग आज भी काफी पढ़ा और सुना जाता है.


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर.
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है.


मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये.


‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम.
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!


दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला.
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है.


हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे.


यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल.
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें.


‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं.
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर.


‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर.
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र.


‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल.
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें.


‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है.


‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख.
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं.


‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण.


‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?


‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ.
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा.


‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा.
दुर्योधन! रण ऐसा होगा.
फिर कभी नहीं जैसा होगा.


‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे.
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा.’


थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े.
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे.
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!



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