राजकीय बौद्ध संग्रहालय गोरखपुर में भारतीय संस्कृति अभिरूचि पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सात दिवसीय राष्ट्रीय व्याख्यान श्रृंखला का हुआ शुभारम्भ

मुकेश कुमार संवाददाता गोरखपुर। राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर द्वारा आस्था, परम्परा, संस्कृति का संगम प्रयागराज महाकुंभ पर्व और भारतीय डाक टिकट प्रदर्शनी एवं तत्सम्बन्धी ब्रोशर (विवरणिका) एवं डाॅ0 जसबीर चावला द्वारा लिखित ‘‘प्रबंधन के गुर, बुद्ध के सुर‘‘ नामक पुस्तक का विमोचन एवं भारतीय संस्कृति अभिरूचि पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सात दिवसीय राष्ट्रीय व्याख्यान श्रृंखला का शुभारम्भ हुआ। जिसका उद्घाटन मुख्य अतिथि- प्रोफेसर पूनम टण्डन, कुलपति, दी0द0उ0 गोरखपुर, विश्वविद्यालय, गोरखपुर, विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर एस0के0 द्विवेदी, लोकपाल, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर, मध्य प्रदेश की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। उक्त अवसर पर डाॅ0 जसबीर सिंह चावला, चण्डीगढ़़ एवं मनोज कुमार श्रीवास्तव, जिला अग्रणी बैंक प्रबन्धक, भारतीय स्टेट बैंक की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
उक्त अवसर पर मुख्य अतिथि प्रोफेसर पूनम टण्डन, कुलपति, दी0द0उ0 गोरखपुर, विश्व विद्यालय, गोरखपुर, ने अपने सम्बोधन में कहा कि संग्रहालय द्वारा विलुप्त कलाओं, भारतीय इतिहास, पुरातत्व, शिक्षा एवं संस्कृति के विकास हेतु अनवरत प्रयास किया जा रहा है। जो गोरखपुर के मील का पत्थर साबित हो रहा है। जो गोरखपुर के लिए अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। प्रतिभा परिचय की मोहताज नहीं होती है। ऐसा संग्रहालय के वर्तमान उप निदेशक डाॅ0 यशवन्त सिंह राठौर के सृजनात्मक एवं सकारात्मक कार्यशैली से राबित हो रहा है।
संग्रहालय के उप निदेशक डाॅ0 यशवन्त सिंह राठौर द्वारा सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए व्याख्यान श्रृंखला पर कार्यक्रम की रूप-रेखा प्रस्तुत करते हुए परिचय दिया गया। इसी कड़ी में आज के मुख्य वक्ता एवं विषय विशेषज्ञ प्रोफेसर एस0के0 द्विवेदी,लोकपाल, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर, मध्य प्रदेश के व्याख्यान का विषय ‘‘ज्ञान अनुभाग के रूप में संग्रहालय‘‘पर हुआ।
मुख्य वक्ता प्रो0 एस0 के द्विवेदी ने उक्त विषय पर सारगर्भित विचार व्यक्त करते हुए कहा कि संग्रहालय ज्ञान का वातायन है। संग्रहालय की उत्पत्ति, विकास एवं शोध आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया। उन्होंने कहा कि यूनान और रोम जैसे देशों में पहली बार 539 ई0पू0 संग्रहालयों की स्थापना हुई तथा आकर्षक, दर्शनीय कलाकृतियाॅं और बहुमूल्य पुरानिधियाॅं विभिन्न देशों के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाने लगी। पुनर्जागरण काल में वस्तुतः संग्रहालय की पुरावस्तुओं को सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध ढंग से सजाने, संवारने की प्रक्रिया शुरू हुई। यूरोप से पुरातत्व का उद्भव और विकास प्रारम्भ हुआ। जो 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 19वीं शताब्दी में यह क्रंति आयी। ईसा से लगभग 3000 वर्ष पूर्व लेखन कला का सर्वप्रथम विकास शायद सुमेरिया में हुआ। संचय, संग्रह की प्रवृत्ति लगभग साढ़े तीन लाख वर्ष पूर्व शुरू हो गयी थी।आल्डुवाई गोर्ज, अतिरप्क्कम और हयनोरा से पाषाण उपकरण की निधि एक ही स्थान पर प्राप्त हुई थी। कुछ विद्वान मानते है कि चाल्डेन शासक ने बोनिडास (556-539 ई0पू0) ने मेसोपोटामिया के सिप्पुर नगर स्थित सूर्यदेव (शमस) के मन्दिर के नीचे दबे पुरावशेषों को खोजा और इन्हें सुरक्षित रखने के लिये बेबीलियोन नगर में एक संग्रहालय की स्थापना की। इन चीजों में (दुर्लभ) सुमेरिया शासक सारगोन के पुत्र नरम-सिन का पाषाण अभिलेख भी सम्मिलित है। यूरोप के पुर्नजागरण काल में (1850 ई0के बाद) प्राचीन कलाकृतियों के संग्रह का कार्य शुरू हुआ। इटली के संग्रहालयों को डाइलेटेन्ट कहा जाता था। इटली खासकर रोम में 15 वीं शती ई0 के अंतिम दशक में प्राचीन कलाकृतियों को संग्रहीत किया जाने लगा। पोप चतुर्थ सिक्सटस 1471 से 1484 एवं एलेक्जेन्डर-6 ने संग्रह कार्य को (1492-1503) प्रोत्साहन दिया। जेम्स स्टुअर्ट निकोलस रेवेड ( चित्रकार, वास्तुकार ) जर्मनी के कलाविद् जाॅन जैकोहिन विन्कल मैन आदि ने संग्रहालयों की स्थापना का कार्य किया।
विलियम जोन्स 1883 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज बने। 15 जनवरी, 1784 में अपने राॅयल एशियाटिक सोसाइटी बनायी। एशिया महाद्वीप की कलाओं, एन्टीक्यूटिज, विज्ञान, साहित्य का अनुसंधान 1788 में एशियाटिक रिसर्चेज पुस्तक का प्रकाशन हुआ। 1814 में राष्ट्रीय संग्रहालय की स्थापना हुई। सेन्ट्रोकोट्टस को चन्द्रगुप्त के नाम से, पालिवाथ्रा (गंगा-सोन) को पाटिलपुत्र के नाम से पहचाना गया। चाल्र्स बुचमैन ने गोरखपुर जिले का सर्वेक्षण 1807 में शुरू किया। उस समय यह क्षेत्र फोर्ट विलियम प्रेसीडेन्सी के अधीन था। कलकत्ता टकसाल के निकास अधिकारी ने (1799 से 1840 ई0) को एशियाटिक सोसाइटी का 1833 ई0 में सचिव नियुक्त किया गया।
रामायण, महाभारत में कलाओं का उल्लेख विशेषतः चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला का विकास- भवभूति द्वारा चित्र वीथी में दिखाया गया है। शैलचित्र कला भी संग्रहालय का ही स्वरूप है। मौर्य काल में स्तम्भ-लेख (संग्रह पट्टिका), भरहुत-शुंग, सुलोचना, सुचिलोक यक्ष मणिभद्र (पवाया, मथुरा) इत्यादि का विवरण उल्लेखनीय है। कनिंघम ने 1861 में धरोहरों का सुव्यवस्थित अध्ययन किया। जाॅन मार्शल ने सांची स्तूप, भण्डारकर, भगवानलाल इन्द्र, जे0एफ0 फ्लीट आदि का अध्ययन कार्य महत्वपूर्ण है।
Also Read एम्स गोरखपुर के अध्ययन से हुआ खुलासा – मेलाज्मा के इलाज में हार्मोन की भूमिका और किफायती उपचार की जरूरत डर्माकॉन 2025 में पेश हुआ महत्वपूर्ण शोध, संस्थान की कार्यकारी निदेशक ने दी बधाई
सभी अतिथियों को संग्रहालय की ओर से स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित भी किया गया। संग्रहालय के उप निदेशक ने बताया कि राष्ट्रीय व्याख्यान श्रृंखला, दिनांक 18 फरवरी, 2025 तक प्रतिदिन अपरान्ह 2 से 4 बजे तक विभिन्न विषय विशेषज्ञों/विद्वानों के सहयोग से संचालित की जायेगी। इसका समापन 18 फरवरी, 2025 को सांय 5.00 बजे संग्रहालय के यशोधरा सभागार में पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र वितरण के साथ होगा। यहाॅं यह भी उल्लेखनीय है कि प्रदर्शनी महाशिवरात्रि दिनांक 26 फरवरी, 2025 तक संग्रहालय में अवलोकनार्थ रहेगा।