सोचिए, अगर भारत की राजनीति को एक फैमिली ड्रामा सीरियल बना दिया जाए, तो इसका नाम शायद होता ‘सांस भी कभी सांसद थी’ क्योंकि हमारे यहाँ कुर्सी सिर्फ़ जनता की नहीं होती, बल्कि अक्सर पापा-जी की, दादा-जी की और हां… चाचा-जी की भी होती है। भारतीय राजनीति में वंशवाद का किस्सा वैसा ही है जैसे बॉलीवुड में स्टारकिड्स की कहानी। हर पार्टी मंच पर चिल्लाती है, हम लोकतंत्र बचा रहे हैं, परिवारवाद को खत्म करेंगे… और फिर जैसे ही अपनी पार्टी पर सवाल आता है, सबको सांप सूंघ जाता है। अब जरा ताज़ा मामला देखिए। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और नेशनल इलेक्शन वॉच (NEW) की एक रिपोर्ट आई है जिसने नेताओं का पूरा ‘खानदानी कनेक्शन’ खोलकर रख दिया। रिपोर्ट कहती है कि आज संसद और विधानसभाओं में हर पाँच में से एक नेता सीधा किसी राजनीतिक घराने से जुड़ा है। और तो और, हमारे लोकतंत्र का सबसे बड़ा सदन ‘लोकसभा’ भी इस बुखार से नहीं बचा। यहाँ तो 31% सांसद सीधे खानदानों के वारिस हैं।
पूरे देश के 5,204 मौजूदा सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों को गिन लीजिए। इनमें से 1,107 नेता यानी पूरे 21%… सब परिवारवाद की ‘कृषि उपज’ हैं। राष्ट्रीय पार्टियों की बात करें तो कांग्रेस इस लिस्ट की हेडगर्ल है,32% वंशवादी नेता। भाजपा भी पीछे नहीं, यहाँ 18% नेता खानदानी हैं। वाम दल CPI(M) थोड़ा ईमानदार निकला, वहाँ सिर्फ 8% परंपरागत खिलाड़ी मिले। लोकसभा का हाल तो ऐसा है कि हर तीन में से एक सांसद पॉलिटिकल फैमिली से आता है। राज्यसभा में 21%, विधान परिषदों में 22% और विधानसभाओं में 20%। मतलब लोकतंत्र का हर कोना घराने की दूकान बन चुका है।
अब जरा राज्यों की तरफ नज़र डालें। यूपी,604 प्रतिनिधियों में से 141 यानी 23% नेता खानदान से। महाराष्ट्र और भी मजेदार 129 नेता यानी 32% वंशवादी। बिहार में 27%, कर्नाटक में 29% और आंध्र प्रदेश में तो 34%… यानि यहाँ हर तीसरा नेता घराने से। दूसरी तरफ, असम जैसे राज्यों में यह आंकड़ा सिर्फ 9% है। यानी वहाँ अभी भी राजनीति थोड़ी ‘लोकतांत्रिक’ दिखती है।
अब आते हैं उन दलों पर जिन्हें लोग ‘प्योर’ मानते हैं। एनसीपी (शरद पवार गुट) और नेशनल कॉन्फ्रेंस में 42% नेता वंशवादी। वाईएसआर कांग्रेस 38% और टीडीपी 36%। मतलब पूरा पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड। हाँ, तृणमूल कांग्रेस में यह सिर्फ 10% और एआईएडीएमके में तो 4% है। आप सोचते होंगे छोटे दल या निर्दलीय शायद इस खेल से बाहर होंगे। पर रिपोर्ट कहती है,सरप्राइज! छोटे, अनरजिस्टर्ड दलों के 87 प्रतिनिधियों में से 21 यानी 24% घरानों से। और तो और, नौ पार्टियां ऐसी मिलीं जहाँ 100% सदस्य वंशवादी थे। निर्दलीय नेता? वही हाल , 94 में से 23 यानी 24% खानदानी।
अब असली ट्विस्ट। महिला नेताओं में तो वंशवाद और ज्यादा हावी है। कुल महिला सांसदों और विधायकों में से 47% घराने से आती हैं। पुरुषों में यह आंकड़ा सिर्फ 18% है। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में तो 60–70% महिला नेता सीधे परिवारिक बैकग्राउंड से आती हैं। सवाल साफ है,क्या राजनीति में महिलाएं सच में अपनी पहचान बना रही हैं या फिर बस पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं?
ऐसे में सवाल उठता है कि वंशवाद इतना ताकतवर क्यों? रिपोर्ट बताती है, यह सिर्फ विरासत नहीं, बल्कि राजनीति का पूरा स्ट्रक्चर बन चुका है। टिकट मिलते हैं ‘विन्नेबिलिटी’ यानी जीतने की गारंटी पर। चुनाव इतना महंगा हो गया है कि पार्टियां उन्हीं को टिकट देती हैं जिनके पास पैसा, ताकत और नेटवर्क पहले से है। और पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र? वो तो लगभग खत्म ही समझिए।
अब सवाल ये है कि इसका समाधान क्या है? ADR और NEW की रिपोर्ट साफ कहती है, जब तक पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्र नहीं आएगा, वंशवाद ऐसे ही फलता-फूलता रहेगा। ज़रूरी है, आंतरिक चुनाव, गुप्त मतदान से पदों का चयन, टिकट देने की पारदर्शी प्रक्रिया और महिलाओं को एक-तिहाई टिकट। लेकिन सिर्फ खानदान वाली महिलाओं को नहीं, बल्कि असली मेहनती और ईमानदार चेहरों को। साथ ही चुनावी खर्च पर सख्त रोक हो, पार्टियों को RTI के दायरे में लाया जाए और टिकट देने के मानदंड पब्लिक किए जाएं। तभी इस “फैमिली पैकेज” पर रोक लग सकती है।
तो अब साफ है कि वंशवाद कोई हवा-हवाई आरोप नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों में बैठ चुका सबसे बड़ा दीमक है। राष्ट्रीय दल हों, क्षेत्रीय दल हों, छोटे दल हों या निर्दलीय, हर जगह परिवारवाद का दबदबा है। अब सवाल यही है,क्या राजनीतिक दल खुद को बदलने की हिम्मत दिखाएंगे? या फिर लोकतंत्र पर वंशवाद की यह छाया और गहरी होती जाएगी?