गधा, गरीब और गणेश: यूपी चुनाव में किसकी होगी जीत?

आज हम बात करेंगे गधे की जी हां, वही गधा जिसे आमतौर पर मज़ाक का पात्र माना जाता है। लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि ये गधा कभी गुजरात टूरिज़्म का चेहरा था, कभी प्रधानमंत्री मोदी की प्रेरणा बना और अब उत्तर प्रदेश की राजनीति का सबसे ‘हॉट टॉपिक’ है, तो क्या आप यकीन करेंगे? लेकिन ये सच्चाई है। यूपी की सियासत में तलवारों और गदाओं का ज़माना अब बीत गया है, अब नया दौर है ‘गदहा युद्ध’ का ,जहां बयानबाज़ी के तीर हैं, प्रतीकों की मार है, और सोशल मीडिया पर हाहाकार है।

इस दिलचस्प कहानी की शुरुआत होती है मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi Adityanath)की एक रैली से, जहां उन्होंने मुरादाबाद में समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) पर हमला करते हुए कहा-हमने बच्चों को ‘ग’ से गणेश सिखाया, लेकिन सपा ने ‘ग’ से गधा पढ़ाया। बस फिर क्या था! अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने तंज कसते हुए जवाब दिया कि हमारे लिए ‘ग’ फॉर गरीब है। हम गरीबों के बच्चों को पढ़ाते हैं। हो सकता है बीजेपी के लिए ‘ग’ फॉर गधा हो। और यहीं से शुरू हो गया ‘ग’ अक्षर का सियासी संघर्ष, जिसने न सिर्फ बयानबाज़ी को गरमाया, बल्कि सोशल मीडिया पर भी बवाल मचा दिया।

जैसे ही ये बयान सामने आए, सोशल मीडिया पर ‘ग फॉर गधा’ और ‘ग फॉर गरीब’ ट्रेंड करने लगा। किसी ने अखिलेश को गरीबों का मसीहा कहा, तो किसी ने योगी के बयान को सांस्कृतिक संरक्षण की बात बताई। लेकिन ये पहली बार नहीं था जब गधा यूपी की राजनीति का हिस्सा बना हो। अब जरा समय की सुई को पीछे ले चलते हैं, 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव की ओर। उस वक्त गुजरात टूरिज़्म का एक विज्ञापन काफी चर्चा में था, जिसमें महानायक अमिताभ बच्चन ने गुजरात के जंगली गधे यानी घुड़खर की तारीफ की थी।

अखिलेश यादव ने उसी पर तंज कसते हुए कहा था कि मोदी जी तो गधों के विज्ञापन कराते हैं। क्या गधे के भी ब्रांड एंबेसडर होते हैं? इसका जवाब पीएम नरेंद्र मोदी ने जबरदस्त अंदाज़ में दिया कि मैं गधे से भी प्रेरणा लेता हूं। वो वफादार होता है, बिना थके काम करता है। और तब पहली बार गधा राजनीति के मैदान में घुसा था। अब जानिए उस असली गधे के बारे में, जो आजकल बयानबाज़ी का केंद्र बन गया है।

अब मिलते हैं उस असली गधे से…दरअसल, गुजरात का घुड़खर अभयारण्य जो भारत का सबसे बड़ा वन्यजीव अभयारण्य है। यह 4954 वर्ग किलोमीटर में फैला है और यहां पाई जाती है एक अनोखी प्रजाति—जंगली गधा। न ये पूरी तरह गधा है, न घोड़ा। 70 किमी/घंटा की रफ्तार से दौड़ता है। वफादारी और ताकत इसकी पहचान है। 2015 की गणना के अनुसार भारत में 4500 जंगली गधे थे, जिनमें से 3000 यहीं रहते हैं। लेकिन सियासत ने इस घुड़खर को हंसी और तंज का प्रतीक बना दिया।

अब 2025 में एक बार फिर गधा लौट आया है, इस बार ‘ग फॉर गरीब बनाम ग फॉर गधा’ के रूप में। योगी आदित्यनाथ ने जहां सपा पर हमला किया कि वो बच्चों को गधे की शिक्षा देती है, वहीं अखिलेश यादव ने पलटवार करते हुए इसे गरीबों की शिक्षा का मुद्दा बना दिया। अब ज़रा सोचिए , जब चुनावी मंच पर गधा और गरीब लड़ रहे हों, तो बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे असली मुद्दे कहां हैं? याद कीजिए 2017 में कुमार विश्वास की कविता , इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं, जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं! लगता है 2025 की राजनीति पर भी यह लाइनें सटीक बैठती हैं!

आज जब ‘ग’ से गधा, गरीब और गणेश की जंग चल रही है, तो यह साफ है कि सियासत में प्रतीक ज्यादा मायने रखने लगे हैं, मुद्दे कम। अखिलेश गरीबों की शिक्षा की बात कर रहे हैं। योगी संस्कृति और संस्कार की दुहाई दे रहे हैं। और जनता…? शायद अभी भी राजनीति में अपने असली मुद्दों को खोज रही है।

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