कृष्ण जन्माष्टमी पर हजारों वर्षों बाद बना अद्भुत संयोग, शुभ मुहूर्त में व्रत रखने से मिलेगा सौभाग्य

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को लेकर चारों तरफ उत्साह बना हुआ है। लेकिन ज्योतिषाचार्यों की मानें तो इसबार कृष्ण जन्माष्टमी पर ठीक वैसा ही संयोग बना है, जैसा द्वापर युग में कान्हा के जन्म क समय बना था। इस खास संयोग को कृष्ण जयंती के नाम से जाना जाता है। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि में आधी रात यानी बारह बजे रोहिणी नक्षत्र हो और सूर्य सिंह राशि में तथा चंद्रमा वृष राशि में हों, तब श्रीकृष्ण जयंती योग बनता है।

 

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उत्तराखंड विद्वत सभा के पूर्व अध्यक्ष पं. उदय शंकर भट्ट के अनुसार, इस साल भाद्रपद की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि दो-तीन सितंबर को दो दिन आने से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को लेकर असमंजस की स्थिति बन रही है। ऐसे में लोगों में दुविधा है कि आखिर किस दिन पर्व मनाया जाए। ज्योतिषाचार्यों का कहना है कि ऐसी स्थिति में निर्णय सिंधु के अनुसार अष्टमी व्यापिनी तिथि में ही जन्माष्टमी का पर्व मनाना शास्त्र सम्मत है। ऐसे में दो सितंबर को व्रत, जागरण और तीन सितंबर को जन्मोत्सव मनाना श्रेष्ठ है।

 

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भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि की रात्रि को हुआ था। हिंदुओं के प्रमुख त्योहारों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में आठवां अवतार लिया था। इस साल अष्टमी तिथि रविवार दो सितंबर को रात्रि 8.51 बजे से शुरू हो रही है, जो कि सोमवार तीन सितंबर को शाम 7.21 बजे तक रहेगी। ऐसे में इस बार अष्टमी तिथि दो दिन आने से लोग दुविधा में हैं कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी दो सितंबर को मनेगी या तीन को।

 

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इस प्रश्न का उत्तर निर्णय सिंधु में दिया गया है। इसमें कहा गया है कि अर्द्ध व्यापिनी सप्तमी युक्त अष्टमी को व्रत, उपवास और जागरण करना चाहिए। ज्योतिषाचार्यों का कहना है कि किसी भी पर्व के दिन को तय करने में तिथि महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। वार और नक्षत्र का इसमें इतना असर नहीं पड़ता है। इस लिहाज से निर्णय सिंधु के अनुसार दो सितंबर को अर्द्धरात्रि व्यापिनी अष्टमी को व्रत, उपवास और जागरण करना शुभ है, जबकि अगले दिन तीन को जन्मोत्सव को मनाया जाना चाहिए।

 

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कभी-कभी हिंदू पर्वों की तिथि निर्णय में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस दुविधा को दूर करने के लिए धर्माचार्यों और विशेषज्ञों ने समस्त धर्मशास्त्र और पुराणों का सार संग्रह करके बड़े-बड़े निबंधों की रचना की है। यह इतने वृहत हैं कि सर्वसाधारण की समझ और पहुंच से परे हैं। उन निबंधों को देखते हुए हिंदू धर्म शास्त्र, पुराणों का सार संग्रह करके निर्णय सिंधु नामक ग्रंथ की रचना की गयी है। धर्मशास्त्रों में प्रमाणिकता की दृष्टि में निर्णय सिंधु मान्य है।

 

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