तीन दशक पहले की वो अंधेरी रात और आज…

वक्त कितनी तेजी से बदलता है। उस साल मैं बोर्डिंग स्कूल से छुट्टियों में घर लौटा था। जन्माष्टमी की रात, कृष्ण जन्म के बाद की खामोशी… और तभी दरवाज़े पर हुई दस्तक। सिसकियों और रोने की आवाज़ों के बीच कुछ ऐसा घटा जिसने जीवन की दिशा ही बदल दी।

हम सब गाड़ी से कुबेरस्थान की ओर निकल पड़े। रास्ते में माँ आँसू बहाती रहीं, पर हमें हिम्मत भी देती रहीं। पुलिस थाने के कैंपस में माँ को उतारकर जब हम पचरुखिया की ओर बढ़े, तो मन में अनगिनत आशंकाएँ थीं, कहीं अनहोनी, कहीं उम्मीदें, कहीं डर। उस रात मानो उम्र अचानक बीस साल आगे बढ़ गई हो।

घाट पर लोग टकटकी लगाए खड़े थे। तभी भैया ने चमकती आँखों से इशारा किया। दौड़कर हम पहुँचे तो देखा, मेरे पिता जी, तत्कालीन SHO, शहीद पुलिसकर्मियों के पार्थिव शरीर नदी से निकलवा रहे थे। वातावरण शोकमग्न था, पर मन में चल रही घंटों की उथल-पुथल अचानक थम गई।

शहीद SHO अनिल पांडेय अंकल… उनसे मेरी मुलाकात गिनती की ही बार हुई थी। उनका रौबिला व्यक्तित्व, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की ख्याति और पिता जी के प्रति गहरा सम्मान आज भी स्मृतियों में ताज़ा है। एक बार उन्होंने मुझे नेबुआ नौरंगिया के सरकारी आवास पर कहा था ‘जीवन भागदौड़ है, किसी को नहीं पता इसका अंत कहाँ है, इसलिए दौड़ते रहो।’तब शायद समझ नहीं पाया, पर आज जानता हूँ कि उनकी ‘दौड़’ बहुत छोटी रही।

उस रात की छाया जीवनभर साथ रही। हर जन्माष्टमी पर वही घटना, वही घाट, वही शोक की परछाई मन को झकझोर जाती है। उस दौर की पत्रकारिता, विशेषकर सिद्धभूमि के प्रधान संपादक स्वर्गीय श्याम सुंदर मिश्र ‘प्राण’ अंकल की स्मृति भी साथ जुड़ती है, जो हर मुश्किल में संबल बने।

और आज तीन दशक बाद, कुशीनगर की वही धरती नई परंपरा का साक्षी बनी।स्थानीय पुलिस अधीक्षक संतोष मिश्रा जी की पहल पर 31 साल का मौन टूटा। थानों और पुलिस लाइन में फिर से गूंजे भजन, सजीं कृष्ण झांकियां और शहीदों को दी गई श्रद्धांजलि।

1994 की जन्माष्टमी

कुबेरस्थान, पचरुखिया डकैतों से मुठभेड़, 6 जांबाज़ शहीद।उस अंधेरी रात से जन्माष्टमी का पर्व पुलिस विभाग में थम गया।

2025 की जन्माष्टमी

31 वर्षों बाद भक्ति, शौर्य और श्रद्धांजलि का संगम। पुलिस लाइन में आस्था का उल्लास, और शहीदों को नमन।यह सिर्फ़ त्योहार नहीं, बल्कि अतीत को श्रद्धांजलि और भविष्य की परंपरा की नींव है।