योगी-अखिलेश की सत्ता बंटेगी या यूपी चमकेगा?

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) भारत का सबसे बड़ा, सबसे निर्णायक और शायद सबसे जटिल राज्य। एक ऐसा प्रदेश जिसकी जनसंख्या पाकिस्तान जितनी है, और जिसकी लोकसभा सीटें गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक के योग से भी ज़्यादा। लेकिन अब यही विशालता, यही ताकत, केंद्र की नज़रों में एक “असंतुलन” बनती जा रही है। और इसी असंतुलन को संतुलित करने की तैयारी शुरू हो चुकी है — उत्तर प्रदेश के विभाजन की। सवाल ये नहीं रह गया कि क्या यूपी बंटेगा। अब सवाल है — क्या योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) जैसे नेताओं की ताकत को सीमित करने के लिए ये बंटवारा किया जा रहा है?

उत्तर प्रदेश कभी ‘यूनाइटेड प्रोविंस’ कहलाता था। 15 अगस्त 1947 को यह “उत्तर प्रदेश” बना और तब से लगातार बढ़ते हुए आज 24 करोड़ की जनसंख्या वाला एक राजनीतिक महाशक्ति बन चुका है। यह राज्य ब्रिटिश भारत के अवध, बुंदेलखंड, रोहिलखंड और पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों का समामेलन है। इतिहास गवाह है कि 2000 में जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिहार से झारखंड, एमपी से छत्तीसगढ़ और यूपी से उत्तराखंड बनाया, तो एक संदेश साफ था — छोटे राज्य, बेहतर शासन। उस समय भी पूर्वांचल और बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाए जाने की मांग उठी थी, लेकिन राजनीतिक कारणों से उसे रोक दिया गया। अब दो दशक बाद, एक बार फिर उसी विचार को पुनर्जीवित किया जा रहा है। लेकिन इस बार सिर्फ प्रशासनिक वजहों से नहीं — इस बार राजनीतिक समीकरणों की सर्जरी के लिए।

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 24 करोड़ है — पाकिस्तान के बराबर, ब्राजील और रूस से कहीं ज्यादा। 403 विधानसभा सीटें और 80 लोकसभा सीटें — यानी भारत की सत्ता की चाबी, सिर्फ एक राज्य के पास। इतना वज़न लोकतंत्र में सवाल खड़े करता है: क्या कोई एक राज्य, इतने बड़े देश की दिशा तय कर सकता है? और जब वही राज्य दो बड़े क्षेत्रीय नेताओं — योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव का गढ़ बन जाए, तो फिर राष्ट्रीय राजनीति को “संतुलन” में लाने के लिए नए नक्शे तैयार किए जाने लगते हैं।

उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की रणनीति अब धीरे-धीरे एक नीति का रूप लेती जा रही है.—-पूर्वांचल राज्य: गोरखपुर, बलिया, देवरिया, बस्ती जैसे जिले मिलाकर पूर्वांचल राज्य बनाया जा सकता है, जिसकी राजधानी गोरखपुर होगी। इसमें दो चीजे और जोड़नी बेहद महत्वपूर्ण है। जब हम बात कर रहे हैं पूर्वांचल की तो पूर्वांचल में वाराणसी भी आता है। गोरखपुर का इलाका तो है ही है। साथ ही साथ प्रयागराज और दूसरा महत्वपूर्ण शहर है वाराणसी, यानी आजमगढ़, वाराणसी और मिर्जापुर मंडल, प्रयागराज मंडल ये तमाम सारे मंडल हैं। इनमें भी काट छांट होगी और कई सारे जिले और करीब 24 लोकसभा और 120 के आसपास विधानसभा क्षेत्र पूर्वांचल के अंदर आ सकते हैं। यह इलाका योगी आदित्यनाथ का मजबूत गढ़ है। गोरखनाथ मठ से लेकर मुख्यमंत्री पद तक, योगी की पूरी राजनीतिक यात्रा इसी क्षेत्र में रची-बसी है। अगर यूपी बंटता है, तो योगी “उत्तर प्रदेश के सीएम” से घटकर सिर्फ “पूर्वांचल के नेता” बन सकते हैं।

अवध राज्य

लखनऊ, रायबरेली, बाराबंकी, सुल्तानपुर, फैज़ाबाद जैसे जिले — यानी अखिलेश यादव का गढ़। लखनऊ उनकी पार्टी की ताकत का केंद्र है। यदि अवध एक अलग राज्य बनता है, तो अखिलेश की राजनीति इसी क्षेत्र तक सीमित रह जाएगी। जब हम अवध की बात करते हैं तो अवध के क्षेत्र में लखनऊ के अलावा देवीपाटन का हिस्सा, सुल्तानपुर के आस पास का हिस्सा, अमेठी रायबरेली का हिस्सा, कानपुर का हिस्सा, कानपुर बड़ा शहर है। कानपुर का हिस्सा इटावा, मैनपुरी का इलाका, कन्नौज, बदायूँ का इलाका। इस इलाके के भी आसपास के क्षेत्र अवध के क्षेत्र में शामिल हो सकते हैं। यूपी के पूरे सत्ता संतुलन को प्रभावित करने वाला चेहरा, केवल अवध के नेता के रूप में सीमित किया जा सकता है।

हरित प्रदेश

मेरठ, मुजफ्फरनगर, नोएडा, गाजियाबाद — जहां बीजेपी, RLD और पश्चिमी किसान राजनीति की टकराहट होती है। यहाँ की राजनीति पूरी तरह जाट, मुस्लिम और शहरी मध्यमवर्गीय मतदाता पर निर्भर है। नोएडा और मेरठ जैसे विकसित क्षेत्र इस राज्य की आर्थिक रीढ़ होंगे, लेकिन यहां भी कोई एक बड़ा चेहरा नहीं, यानी केंद्र के लिए नियंत्रण आसान। हरित प्रदेश की जब हम बात करते हैं तो फिर आगरा से लेकर के और फिर सहारनपुर तक का पूरा इलाका। इसमें नोएडा, गाजियाबाद जैसे बड़े शहर, मेरठ जैसे बड़े शहर मुरादाबाद जैसे अलीगढ़ जैसे बड़े शहर शामिल हैं। इन शहरों के आधार पर अगर आप आकलन करें तो राज्य की आर्थिक स्थिति, आर्थिक विषमता भी सीधे तौर पर दिखाई पड़ेगी। टैक्स कलेक्शन से लेकर एंप्लॉयमेंट के अवसर भी दिखाई पड़ेंगे कि पूर्वांचल जैसे इलाके बहुत पिछड़े हुए हैं यानी क्षेत्र बहुत पिछड़े हुए होंगे। बुंदेलखंड बहुत पिछड़ा हुआ होगा। अवध और हरित प्रदेश का क्षेत्र अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में होगा। लेकिन ये सब कुछ तब होता है, जब उत्तर प्रदेश एक बड़ी राजनीतिक शक्ति।

बुंदेलखंड राज्य

झांसी, महोबा, बांदा जैसे जिले और मध्य प्रदेश के कुछ सीमावर्ती हिस्से — जो दशकों से विकास से उपेक्षित रहे हैं। यह क्षेत्र नया “सामाजिक प्रयोगशाला” बन सकता है, जहां नया नेतृत्व खड़ा किया जा सकता है। यानि हर नया राज्य, नए नेता। पुराने दिग्गजों के प्रभाव को सीमित करने का सीधा तरीका। लोग ये कहते हैं कि उत्तर प्रदेश तय करता है कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा, देश की सत्ता में कौन बैठेगा और कितनी ताकत से बैठेगा। और वही उत्तर प्रदेश अगर चार हिस्सों में विभाजित हो जाएगा तो क्या वो देश की सत्ता चलाने वाला राज्य हो पाएगा या और भी पिछड़ता चला जाएगा? या फिर जो बात हम कह रहे थे कि छोटे राज्य, विकास के बड़े अवसर। इन छोटे राज्यों के विभाजन यानी उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों में विभाजन से विकास के अवसर बढ़ेंगे, ये भी सबसे बड़ा सवाल है।

नरेंद्र मोदी, गुजरात जैसे छोटे राज्य से आए नेता, शासन को लेकर एक सिद्धांत पर विश्वास करते हैं — “Minimum Government, Maximum Governance” उनका मानना है कि छोटे राज्य ज़्यादा उत्तरदायी होते हैं, प्रशासनिक रूप से चुस्त होते हैं और विकास की गति तेज़ होती है। लेकिन यूपी के संदर्भ में यह नीति राजनीतिक रणनीति भी बन चुकी है। क्योंकि 2026 में होने वाला परिसीमन एक ऐसा मोड़ है जहां लोकसभा की सीटों का पुनर्गठन होगा — और यूपी की सीटें शायद 80 से 90–95 तक बढ़ जाएं। यानी राजनीतिक असंतुलन और बढ़ेगा। अगर बंटवारा नहीं हुआ, तो यूपी संसद का एकतरफा ताकतवर केंद्र बन जाएगा- जिससे केंद्र सरकार और अन्य राज्यों की भूमिका पीछे छूट सकती है।

इसलिए भाजपा के नीति-नियंता मानते हैं कि अगर पुनर्गठन करना है, तो अभी — 2026 से पहले। और अगर करना है, तो उन चेहरों की ताकत को सीमित करना होगा, जिनकी छाया केंद्र की राजनीति पर पड़ने लगी है। 1956 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तब भी यूपी के आकार पर चर्चा हुई थी, लेकिन राजनीतिक समर्थन नहीं मिला। 1981 में चौधरी चरण सिंह ने हरित प्रदेश का सुझाव दिया, कहा – लखनऊ की नौकरशाही पश्चिम यूपी को नहीं समझती। 1996–98 के बीच बुंदेलखंड और पूर्वांचल के लिए आंदोलन शुरू हुए, लेकिन 2000 में सिर्फ उत्तराखंड को अलग किया गया, बाकी के हिस्से फिर हाशिए पर चले गए।

2011 में मायावती सरकार ने यूपी को 4 हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव विधानसभा में पास किया, लेकिन उसे केंद्र में कांग्रेस सरकार को नहीं भेजा गया। कांग्रेस ने इसे “राजनीतिक नौटंकी” कहा। 2014 के बाद भाजपा सरकार में फिर से यह चर्चा चली, नीति आयोग ने छोटे राज्यों की वकालत की, पूर्वांचल के सांसदों ने राज्य की मांग उठाई, बुंदेलखंड विकास बोर्ड ने रिपोर्ट दी — लेकिन कोई विधायी प्रस्ताव नहीं आया। अब 2026 में परिसीमन होने से पहले, यह मुद्दा फिर राजनीतिक मेज़ पर है।

उत्तर प्रदेश का विभाजन अब महज प्रशासनिक बात नहीं है — यह सत्ता की दिशा तय करने वाली रणनीति बन चुका है। योगी आदित्यनाथ जैसे नेता — जो पूर्वांचल से उठकर आज राष्ट्रीय चेहरा बन चुके हैं। अखिलेश यादव — जो विपक्ष के सबसे मुखर नेता हैं। अगर यूपी को चार राज्यों में बांट दिया जाए, तो ये दोनों नेता अपने-अपने इलाकों तक सिमट जाएंगे। केंद्र सरकार को ज़्यादा “अनुकूल नेतृत्व” तैयार करने का अवसर मिलेगा। और यूपी की वह शक्ति — जो कभी दिल्ली की सरकार गिराती और बनाती थी — अब 4 हिस्सों में बंट जाएगी। सवाल ये भी है कि क्या योगी और अखिलेश को सीमित करने के लिए यूपी का नक्शा बदला जा रहा है? क्या यह जनता के विकास के लिए है या सत्ता के संतुलन के लिए?

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