भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व बनाम संगठन का संघर्ष नया नहीं है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का इतिहास भी इस बात का गवाह है कि जब भी किसी करिश्माई नेता का कद पार्टी से बड़ा होता नजर आया, वहां राजनीतिक तनाव पैदा हुए। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में यही स्थिति कल्याण सिंह के साथ हुई। उस समय के भाजपा नेतृत्व—अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी—ने उन्हें सत्ता और संगठन की खींचतान में किनारे कर दिया। सवाल यह है कि क्या वही अध्याय अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में योगी आदित्यनाथ के साथ लिखा जा रहा है?
कल्याण सिंह का अध्याय
कल्याण सिंह राम मंदिर आंदोलन के दौर में उत्तर प्रदेश में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा थे। 1991 में भाजपा पहली बार यूपी की सत्ता में आई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन वे हिंदू राजनीति के प्रतीक बन गए। 1997 में वे दूसरी बार मुख्यमंत्री बने और 1999 तक पार्टी और सरकार में उनकी पकड़ बेहद मजबूत थी।
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लेकिन यहीं से टकराव शुरू हुआ। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व (अटल-आडवाणी) चाहता था कि कल्याण सिंह की शैली संगठनात्मक अनुशासन के भीतर रहे। उनकी खुद की लोकप्रियता और निर्णय लेने की स्वतंत्र शैली पार्टी के सामूहिक नेतृत्व को असहज कर रही थी। अंततः 1999 में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और कुछ समय बाद उन्होंने भाजपा छोड़ दी।
योगी आदित्यनाथ का कद और राजनीति
योगी आदित्यनाथ भाजपा में एक अनोखी शख्सियत हैं। वे 1998 में पहली बार गोरखपुर से सांसद बने, लेकिन गोरखनाथ मठ के महंत होने के नाते उनकी राजनीति हमेशा “पार्टी से परे” दिखी। 2017 में जब भाजपा ने उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया, तो यह फैसला चौंकाने वाला था। उस समय यह कहा गया कि मोदी-शाह ने योगी को हिंदुत्व का चेहरा बनाकर राज्य में पार्टी की पकड़ मजबूत करने की रणनीति बनाई है।
पिछले 7 वर्षों में योगी आदित्यनाथ की व्यक्तिगत ब्रांडिंग ने जोर पकड़ा है।
- उन्होंने कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर “बुलडोजर बाबा” की छवि बनाई।
- यपी में “सख्त प्रशासन और हिंदुत्व की राजनीति” का संगम उन्हें जनता में बेहद लोकप्रिय बना रहा है।
- उनकी छवि न केवल राज्य स्तर पर, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा के बाद सबसे बड़े हिंदुत्व चेहरे के रूप में उभरी है।
यही कारण है कि कई राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि योगी अब भाजपा के “स्वतंत्र ध्रुव” बन गए हैं, जो किसी भी समय राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए चुनौती बन सकते हैं।
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मोदी-शाह बनाम योगी?
भाजपा का मौजूदा नेतृत्व—नरेंद्र मोदी और अमित शाह—पूरी तरह केंद्रीकृत नियंत्रण में विश्वास करता है। मोदी-शाह की जोड़ी का सबसे बड़ा गुण है कि उन्होंने पार्टी और सरकार में हर स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत की है। उनके कार्यकाल में किसी भी क्षेत्रीय नेता को इतना बड़ा नहीं होने दिया गया कि वह केंद्र को चुनौती दे सके।
योगी आदित्यनाथ का मामला थोड़ा अलग है। वे भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के भी करीबी माने जाते हैं, लेकिन उनकी अपनी कार्यशैली, लोकप्रियता और “मठ की स्वतंत्र पहचान” उन्हें खास बनाती है। 2022 के विधानसभा चुनाव में योगी का करिश्मा भाजपा के लिए निर्णायक रहा। उनकी लगातार बढ़ती लोकप्रियता और “कड़े फैसलों” की वजह से उनका कद राष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ रहा है।
पिछले कुछ समय से चर्चाएं हैं कि मोदी-शाह और योगी के बीच समीकरण उतने सहज नहीं हैं जितने पहले थे।
- पार्टी संगठन में उत्तर प्रदेश के नेताओं की नियुक्ति और फैसलों पर कई बार मतभेद की बातें सामने आई हैं।
- योगी का “खुद की ब्रांडिंग” पर फोकस केंद्र को असहज करता है।
- भाजपा के भीतर कुछ गुटों को लगता है कि 2029 के बाद योगी आदित्यनाथ खुद को प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार के रूप में प्रोजेक्ट कर सकते हैं।
क्या इतिहास खुद को दोहरा सकता है?
कल्याण सिंह और योगी आदित्यनाथ की परिस्थितियां एक जैसी लगती हैं, लेकिन समय और संदर्भ पूरी तरह अलग हैं।
- 1990 के दशक की भाजपा में क्षेत्रीय नेताओं का कद राष्ट्रीय नेतृत्व से टकराता था। आज की भाजपा मोदी-शाह की “अत्यधिक केंद्रीकृत” संरचना में काम करती है।
- कल्याण सिंह की शक्ति संगठन से बाहर थी, लेकिन योगी की शक्ति संगठन के भीतर भी मान्यता प्राप्त है।
- कल्याण सिंह का बाहर जाना भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। पार्टी अब उस गलती को दोहराना नहीं चाहेगी।
फिलहाल, राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। अगर योगी का कद लगातार राष्ट्रीय नेतृत्व के समानांतर बढ़ता गया, तो पार्टी नेतृत्व उन्हें नियंत्रित या सीमित करने की कोशिश कर सकता है। भाजपा की कार्यशैली यह बताती है कि केंद्रीय नेतृत्व कभी किसी एक व्यक्ति को पार्टी से ऊपर नहीं होने देता।
योगी का बढ़ता कद भाजपा के लिए वरदान और चुनौती दोनों
योगी आदित्यनाथ का बढ़ता कद भाजपा के लिए एक वरदान और चुनौती दोनों है। वे भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे के सबसे बड़े योद्धा हैं, लेकिन उनकी “व्यक्तिगत लोकप्रियता” और “स्वतंत्र राजनीतिक पहचान” पार्टी नेतृत्व को असहज कर सकती है।
अटल-आडवाणी के दौर में कल्याण सिंह की कहानी इस बात का सबूत है कि भाजपा अपने सिद्धांतों और केंद्रीय नियंत्रण को प्राथमिकता देती है। हालांकि, आज का भाजपा नेतृत्व कहीं ज्यादा समझदार और रणनीतिक है। योगी को हाशिए पर धकेलने की बजाय उन्हें “राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा” बनाए रखना पार्टी के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा।
लेकिन अगर आने वाले सालों में भाजपा का नेतृत्व इस संतुलन को नहीं साध पाया, तो इतिहास दोहराने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। योगी की राजनीति और उनके हिंदुत्व एजेंडे की ताकत उन्हें भविष्य में भाजपा का सबसे बड़ा दावेदार बना सकती है।
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