नहीं रहे भोजपुरी लोक संस्कृति के अमर साधक डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘जुगानी भाई’


मुकेश कुमार संवाददाता गोरखपुर। लोकसंस्कृति, साहित्य, पत्रकारिता और प्रसारण की अद्वितीय विभूति, भोजपुरी भाषा के महनीय साधक डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘जुगानी भाई’ का आज देहावसान हो गया। उनका जाना भारतीय साहित्य और विशेषकर भोजपुरी जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। वे केवल एक साहित्यकार, कवि और प्रसारक नहीं थे, बल्कि भोजपुरी जनमानस की आत्मा के संवाहक थे। जिन्होंने अपनी लेखनी और स्वर से समाज को एक नई दिशा दी। उनका निधन केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं, बल्कि एक संपूर्ण युग का अवसान है, जिसकी भरपाई संभव नहीं।

भोजपुरी साहित्य की अमूल्य थाती

डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव का नाम भोजपुरी साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। वे एक ऐसे रचनाकार थे, जिनके शब्दों में *ग्राम्य जीवन का यथार्थ, लोकसंस्कृति की गहराई और सामाजिक चेतना का अद्भुत समन्वय* था। उनकी लेखनी में भोजपुरी जनमानस की भावनाएँ इस प्रकार गुंथी थीं कि उनकी कृतियाँ केवल साहित्य नहीं, बल्कि लोकसंस्कृति का जीवंत दस्तावेज बन गईं।

उन्होंने *‘मोथा अउर माटी’, ‘गीत गांव-गांव के’, ‘नोकियात दूब’, ‘अखबारी कविता’, ‘ई कइसन घवहा सन्नाटा’, ‘अबहिन कुछ बाकी बा’, ‘खिड़की के खोली’* जैसी कालजयी कृतियाँ दीं, जो भोजपुरी साहित्य के अमर ग्रंथों के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। उनकी लेखनी में लोकभाषा का माधुर्य, अभिव्यक्ति की सहजता, तथा जीवन के संघर्षों की प्रखरता विद्यमान थी।

*रेडियो प्रसारण में अतुलनीय योगदान*

डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव ‘जुगानी भाई’ ने आकाशवाणी गोरखपुर के माध्यम से ग्रामीण प्रसारणों की नींव रखी और लोकसंस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने *500 से अधिक लघु नाटिकाओं का लेखन और निर्देशन* किया, जो आज भी आकाशवाणी के स्वर्णिम अध्यायों में अंकित हैं। उनका स्वर, उनकी वाणी और उनकी लेखनी ने रेडियो को केवल सूचना एवं मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि लोकसंस्कृति के संवर्धन का शक्तिशाली उपकरण बना दिया।
उनका ‘जुगानी भाई’ का किरदार केवल एक नाम नहीं था, बल्कि लोकमानस की भावनाओं का प्रतिबिंब था। *उनके स्वर की गूँज तीन दशकों तक खेत-खलिहानों, चौपालों और गाँव की गलियों में सुनाई देती रही। इसी तरह, उनका ‘लपटन साहेब’ का किरदार खड़ी बोली में हास्य और व्यंग्य की उत्कृष्ट प्रस्तुति का अप्रतिम उदाहरण* बना।

सम्मान और उपलब्धियाँ

उनकी साहित्यिक और सांस्कृतिक साधना को राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर अनेकों सम्मान प्राप्त हुए, जिनमें प्रमुख हैं:

• उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा ‘लोकभूषण सम्मान’

• भिखारी ठाकुर सम्मान (2015)

• संस्कार भारती सम्मान (2001)

• लोकभूषण पुरस्कार (2002)

• भोजपुरी रत्न (2004)

• पं. श्याम नारायण पांडेय सम्मान (2011)

• राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार (2012)

• विद्यानिवास मिश्र लोककला सम्मान (2013)

उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे केवल साहित्यकार नहीं थे, बल्कि एक कुशल संगठक और समाज को जागरूक करने वाले कर्मयोगी थे। वे *”राष्ट्रीय सहारा” दैनिक में “बेंगुची चलल ठोंकावे नाल”* नामक स्तंभ के माध्यम से सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक विमर्श को नई दिशा देते रहे।
एक युग का अवसान
डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव का जीवन संघर्ष, साधना और सृजन का अद्भुत उदाहरण था। वे उन चुनिंदा साहित्यकारों में से थे, जिन्होंने लोकभाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, साहित्य और सामाजिक चेतना का संवाहक बनाया। प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव का यह कथन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सटीक व्याख्या करता है –

“धारा के विपरीत चलकर नई राह बनाना कठिन होता है। सुविधा-संपन्न सरकारी पोषण से पली भाषाओं पर टूटने वालों की भीड़ लगी हुई है, परंतु लोक साहित्य का कोई पालनहार नहीं है। ऐसे में जिन गिने-चुने लोगों ने आजीवन लोकभाषा के लिए संघर्ष किया, उनमें एक प्रमुख नाम जुगानी भाई का है।”

उनकी लेखनी और वाणी ने लोकसंस्कृति को जीवंत बनाए रखने के लिए जो योगदान दिया, वह युगों-युगों तक प्रेरणा स्रोत बना रहेगा। उनकी कृतियाँ और उनके विचार भोजपुरी भाषा और साहित्य को समृद्ध करते रहेंगे।

आज उनके निधन पर सम्पूर्ण साहित्यिक, सांस्कृतिक और प्रसारण जगत शोकाकुल है। उनकी अनुपस्थिति से जो रिक्तता उत्पन्न हुई है, उसे भरना असंभव है, किंतु उनकी कृतियाँ और उनके विचार उन्हें अमर बनाए रखेंगे। वे शरीर से भले हमारे बीच नहीं हैं, किंतु उनकी साहित्यिक साधना, उनकी वाणी और उनकी लेखनी हमें सदैव प्रेरित करती रहेगी।
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