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‘केंद्र में कुर्सी, पर यूपी में खिसक रही ज़मीन…’, UP को लेकर BJP में माथा- पच्ची

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस वक्त अपने संगठनात्मक ढांचे को नए सिरे से तैयार करने में जुटी है। कई राज्यों में संगठनात्मक प्रमुख चुने जा चुके हैं और अब बारी राष्ट्रीय अध्यक्ष की है। लेकिन इन तमाम बदलावों के बीच सबसे बड़ी चुनौती और बहस का केंद्र बन गया है उत्तर प्रदेश (यूपी)।

यूपी प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव: एक सियासी चुनौती

भाजपा के लिए यूपी का महत्व सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। पिछले एक दशक में पार्टी की राष्ट्रीय सफलता की नींव यूपी से ही पड़ी। यहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव लड़ने की रणनीति ने पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती दी। लेकिन अब यही प्रदेश भाजपा के लिए एक नई चुनौती बनकर उभरा है।

लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने बढ़ाई बेचैनी

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में करारी चोट लगी। जहां 2019 में पार्टी ने 62 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर सिर्फ 33 रह गई। इससे साफ हो गया कि पार्टी का जनाधार यहां कमजोर हुआ है। यही कारण है कि प्रदेश अध्यक्ष का चयन अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के मुकाबले कहीं अधिक पेचीदा हो गया है।

संगठन और सरकार के बीच संतुलन सबसे बड़ी कसौटी

वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय का मानना है कि प्रदेश अध्यक्ष चुनने में जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण जरूर अहम हैं, लेकिन उससे बड़ी जरूरत है, सरकार और संगठन के बीच संतुलन बनाने की। संगठन कमजोर हुआ तो उसका असर पूरे राज्य में पार्टी की साख पर पड़ेगा। इसलिए ऐसा चेहरा चाहिए जो संगठन को भी मजबूत रखे और सरकार के साथ तालमेल भी बनाए।

योगी की भूमिका को लेकर मंथन

हालांकि लखनऊ और दिल्ली के बीच मतभेद की चर्चा है, लेकिन सच्चाई ये है कि अगर भाजपा को 2027 में फिर सत्ता में लौटना है, तो उसे योगी आदित्यनाथ को अपने साथ बनाए रखना होगा। दिल्ली को अब यह तय करना है कि वह कैसे नेतृत्व में संतुलन बैठाती है ताकि न तो संगठन कमजोर हो और न सरकार अकेली दिशा तय करे।

हार का दोष किसी पर न जाए, संदेश भी सधा रहे

प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति सिर्फ एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश भी है। इस नियुक्ति से यह प्रतीक नहीं जाना चाहिए कि चुनावी हार का दोष किसी खास व्यक्ति या गुट पर मढ़ा गया। अध्यक्ष ऐसा हो जो न केवल जाति-वर्ग के बीच संतुलन बना सके, बल्कि यह भी संकेत दे कि सरकार को भी अब संगठन के साथ मिलकर चलना होगा।

राजनीतिक संतुलन और कई स्तरों पर फेरबदल की जरूरत

वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र कुमार मानते हैं कि सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि अब कैबिनेट में बदलाव, बोर्डों और आयोगों में नियुक्तियों का भी समय आ गया है। करीब 30% जिलों में भी नए अध्यक्ष तय करने हैं। यह सब कुछ मिलाकर भाजपा के सामने एक बड़ी प्रशासनिक और राजनीतिक चुनौती है।

भूपेंद्र चौधरी की असफलता और भविष्य की दिशा

भूपेंद्र चौधरी को जाटलैंड में भाजपा का विस्तार करने की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन पार्टी आज भी वहां जयंत चौधरी पर निर्भर नजर आती है। चौधरी खुद अपने क्षेत्र में जीत दर्ज नहीं कर सके। इन सब पहलुओं पर विचार करते हुए ही पार्टी को अपने भविष्य की रूपरेखा तैयार करनी होगी।

जातिगत संतुलन भी बनाना जरूरी

यह जरूरी नहीं कि यूपी अध्यक्ष की घोषणा राष्ट्रीय अध्यक्ष से पहले हो। लेकिन संभावना है कि अगर राष्ट्रीय अध्यक्ष किसी जाति से होगा, तो यूपी का अध्यक्ष उससे अलग जातिगत समूह से चुना जाएगा, ताकि सामाजिक और राजनीतिक संतुलन बना रहे।

यूपी से जनाधार खिसका तो केंद्र में सत्ता दूर की कौड़ी

वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश वाजपेयी के अनुसार, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हैसियत इतनी बड़ी है कि यहां जनाधार कमजोर हुआ तो केंद्र की सत्ता भी दूर हो सकती है। कांग्रेस इसका उदाहरण है, जो यूपी से कमजोर हुई और दोबारा सत्ता में लौटना उसके लिए असंभव होता गया। यही वजह है कि 2024 में यूपी में हार के बाद केंद्र में भाजपा बहुमत से चूक गई और सहयोगी दलों के सहारे सरकार बनानी पड़ी।

रिशफलिंग में भी चुनौती, चेहरों की अदला-बदली आसान नहीं

भाजपा के लिए यूपी और केंद्र में एकसाथ फेरबदल करना भी किसी चुनौती से कम नहीं । जिन नेताओं ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, उन्हें तुरंत हटाना आसान नहीं होगा। वहीं नए चेहरों का समायोजन और कैडर के बीच संतुलन बनाए रखना भी एक बड़ा सवाल है।

संगठन बनाम सरकार नहीं, साथ-साथ चलने की जरूरत

यूपी में संगठन और सरकार के बीच सामंजस्य अब महज सलाह की बात नहीं, बल्कि पार्टी की राजनीतिक जीवंतता का प्रश्न बन चुका है। विनोद तावड़े हों या पीयूष गोयल , दोनों के दौरे और बैठकों से कई सुझाव तो आए हैं, लेकिन असली परीक्षा है, संगठन और सरकार के बीच एक प्रभावी चेक एंड बैलेंस तैयार करना।

यूपी का संतुलन बिगड़ा तो पार्टी की नींव हिल सकती है

संक्षेप में, राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन जरूरी है, लेकिन उससे भी कठिन और निर्णायक जिम्मेदारी है यूपी में नेतृत्व का चयन। अगर उत्तर प्रदेश में पार्टी की पकड़ कमजोर हुई, तो इसका असर सिर्फ राज्य में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा पड़ेगा। इसलिए भाजपा के लिए यह महज चुनाव नहीं, एक अहम रणनीतिक मोड़ है।

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