आओ आजादी-आजादी खेलें – इंकलाब जिन्दाबाद

 

 

 

नहीं..नहीं…मैं उस आजादी की बात नही कर रहा जो दिल्ली के विख्यात विश्वविद्यालय में मुट्ठी भर किशन कन्हैया एकत्रित होकर नारे लगा लगा कर लेते हैं – ‘हम लेकर रहेंगे आजादी’। मैं तो उस वास्तविक आजादी की बात कर रहा हूं जो सात दशक पहले ब्रितानी राजघराने से सत्ता हस्तांतरित कर एक भारतीय राजघराने को सौंपने के बाद मिली थी।

 

 

हां..हां…वही, जिसकी वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष छुट्टी होती है, पर अफसोस ‘ड्राय-डे’ भी होता है। वही छुट्टी मनाने वाली आजादी। जो लोग इस छुट्टी में शनिवार और रविवार को मिलाकर सिंगापुर और बैंकॉक नहीं जा पाते, उन्हें ज्ञात होगा कि उस दिन मुर्गे की बांग से पहले ही लाउड स्पीकर बजना चालू हो जाते हैं। ‘ये देश है वीर जवानो का’ और ‘ए मेरे वतन के लोगों’ के गीतों से आकाश गुंजायमान हो जाता है।

 

 

एक रात पहले ‘कुछ कर गुजरने’ को लालायित युवा रात से ब्रह्म मुहुर्त तक पार्टी नंबर्स पर थिरक थिरक कर थके मांदे घर आते हैं, क्योंकि पंद्रह अगस्त की छुट्टी जो होती है। पर इन गानों के शोर से प्राय: उनकी नींद में बाधा भी उत्पन्न होती है। इस खेल में मंझे हुये खिलाड़ी इसीलिए खिड़की दरवाजे बंद करके सोते हैं। कुछ संगठनों ने इस दिन होने वाले शोर के विरोध में न्यायालय में याचिका दायर करने की योजना भी बनाई है। हालांकि समाचार लिखे जाने तक इसकी कोई पुष्ट जानकारी हाथ नहीं लगी है। फिलहाल इसे व्हाट्सएप पर फैली हुई एक ‘फेक न्यूज’ मान लेना ही उचित है।

 

 

इतिहास की मेरी समस्त जानकारी का श्रेय एनसीईआरटी की पुस्तकों को जाता है। ये चुनिंदा विचारधारा से प्रभावित बुद्धिजीवियों द्वारा अंग्रेजी में लिखी किताबों का हिंदी अनुवाद है। बचपन से लेकर शालायी शिक्षा पूर्ण होने तक भारत की स्वतंत्रता मेरे लिए एक 200 शब्दों का निबंध था, जो हर अगली कक्षा में 50 शब्द प्रति वर्ष के अनुपात से बढ़ जाया करता था। भला हो मेरे ज्येष्ठ भाई-बहनों का, जिनकी पुरानी कापियां रद्दी में जाने से रोक दी जाती थीं, जिससे मुझे निबंध लिखने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।

 

 

आजकल के परिवारों में तो ‘हम दो हमारा एक’ सिद्धांत के तहत सीमित वंशवर्धन किया जाता है। ऐसे दुर्भाग्यहीन कर्णधारों के लिए गूगल ने विशेष व्यवस्था की है। एक ही क्लिक में प्रत्येक कक्षा और प्रत्येक शब्द सीमा के लिए निबंध उपलब्ध है, यहां तक कि हिन्दी में भी। गांधीजी का चंपारण सत्याग्रह और भगत सिंह का आजादी में योगदान मेरे लिए दस-दस नंबर के दो महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न थे। इधर, हमारे इतिहास के अध्यापक वयोवृद्ध नेहरूवादी होने की साथ साथ देश के राजनीतिक भविष्य के जानकार भी थे। अत: उन्होंने कभी भी सुभाष चंद्र बोस का पाठ नहीं पढ़ाया। पूछने पर कह देते, यह आवश्यक नहीं है… भविष्य में कोई भी इस विषय पर तुमसे कुछ नहीं पूछेगा।

 

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