मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. एक दशक से अधिक समय से सत्ता पर काबिज शिवराज सरकार के खिलाफ ‘एंटी इनकंबेसी’ फैक्टर भी पूरी तरह से कांग्रेस के काम नहीं आया और वह बहुमत के लिए जरूरी अंक तक नहीं पहुंच सकी. परिणामों की अंतिम घोषणा के बाद कांग्रेस के खाते में 114 सीट आईं और वह बहुमत के लिए जरूरी 116 के आंकड़े से दो सीट दूर रही. मायावती की बहुजन समाज पार्टी की ओर से समर्थन में घोषणा के बाद कांग्रेस को सत्ता की ‘सीढ़ी’ तो मिल गई है लेकिन शिवराज को पूरी तरह मात नहीं दे पाने की टीस लंबे समय तक उसे सालती रहेगी. मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बार टी-20 मैच के तरह बेहद रोचक रहे. सीटों के रुझान में दोनों पार्टियों के बीच पूरे समय कड़ा संघर्ष चलता रहा और आखिरकार देर रात कांग्रेस को राहत की सांस लेने का मौका मिला. कभी रुझान में कांग्रेस पार्टी बाजी मारती दिख रही थी तो कभी बीजेपी के इस रेस में आगे निकलने से भगवा पार्टी के समर्थकों को खुशी मनाने का मौका मिलता रहा. शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई वाली बीजेपी को ‘मात’ देने में कांग्रेस को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा.
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मध्यप्रदेश में इस बार हुए रिकॉर्ड मतदान के बाद ही कांग्रेस एक तरह से ‘विनिंग मोड’ में थी. ‘एंटी इनकंबेसी’ फैक्टर और एग्जिट पोल में अपने पक्ष में आए ज्यादातर रुझान को वह जीत का आधार मान रही थी लेकिन इस चुनावी समर में शिवराज सिंह ‘धरती पकड़’ साबित हुए. अंत में बाजी भले ही कांग्रेस के पक्ष में आई लेकिन शिवराज भी ‘विजेता’ से कम साबित नहीं हुए. दूसरे शब्दों में कहें तो मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों को शिवराज की ‘हार’ के बजाय कांग्रेस की ‘जीत’ कहा जाना उपयुक्त होगा.
कांग्रेस ने इस बार सूबे में चुनाव पूरी तरह एकजुट होकर लड़ा था. वरिष्ठ नेता कमलनाथ को हर कदम पर युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया का साथ मिला. दोनों ने मिलकर बीजेपी को पटखनी देने की रणनीति को अमली जामा पहनाया था. बीजेपी के कुछ कद्दावर नेताओं ने बागी बनकर एक तरह से इस चुनाव में कांग्रेस के लिए ‘बी टीम’ का काम किया. पूर्व सांसद रामकृष्ण कुसुमरिया दो सीटों पर बागी प्रत्याशी बनकर बीजेपी के खिलाफ मैदान में उतरे तो सरताज सिंह ने तो ऐन चुनाव के पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया. कुसुमरिया और सरताज, दोनों ही अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में बनी बीजेपी सरकार में मंत्री रहे हैं. इन तमाम बातों के बावजूद शिवराज की कद्दावर छवि ने कांग्रेस को हर सीट के लिए कड़ा संघर्ष कराया. सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद ‘ब्रांड शिवराज’ ने बीजेपी को करारी हार से बचाए रखा. बीजेपी मध्यप्रदेश का यह ‘टी20 मुकाबला’ हारी जरूर लेकिन अपना सम्मान बचाने में सफल रही. राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार का इन चुनावों मे जिस तरह का हश्र हुआ, उसे देखते हुए शिवराज का प्रदर्शन हर तरह तारीफ़ के काबिल है.
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आखिरकार शिवराज सिंह में ऐसा क्या है कि मध्यप्रदेश में उनकी सरकार को मात देने का कांग्रेस का सपना पूरी तरह पूरा नहीं हो पाया. मध्यप्रदेश के लोग इसके पीछे कारण शिवराज सिंह की आम आदमी की छवि को मानते हैं. शिवराज ने बेहद चतुराई से यह छवि गढ़ी है. मध्यप्रदेश के बच्चों के लिए वे ‘मामा’ हैं तो महिलाओं के ‘भाई’. व्यवहार में शिवराज बेहद सौम्य हैं, सियायत में शायद ही उनका कोई ‘शत्रु’ हो. यही कारण रहा कि राज्य में दो दशक से अधिक समय तक सत्ता पर काबिज रहे.
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शिवराज के भाषणों में भी यह देसीपन झलकता है. आज गवर्नर को इस्तीफ़ा देने के बाद शिवराज ने बेहद शालीन और गंभीर तरीके से जनमत को स्वीकारते कहा कि हम यह जनादेश स्वीकार करते हैं. उन्होंने इस दौरान सकारात्मक सक्रिय विपक्ष की भूमिका निभाने की बात भी कही जो उन्हें लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला एक परिपक्व नेता दर्शाता है.
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