वह मुकदमा जिसने इंदिरा गांधी को इतना भयभीत कर दिया कि उन्होंने लोकतंत्र की हत्या कर डाली

भारतीय राजनीति में 25 जून का दिन बेहद खास है, ऐसा इसलिए क्‍योंकि आज ही इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने देश में आपातकाल (Emergency) लागू किया था. इसके पीछे वजह पूरी तरह से राजनीतिक थी. दरअसल 45 साल पहले 12 जून 1975, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उस वक्त के संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण की याचिका पर इंदिरा गांधी के खिलाफ एक अहम फैसला सुनाया था. वह वर्ष 1971 के चुनाव में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े थे. इस चुनाव में वे हार गए थे.

हालांकि, उन्हें चुनाव में अपनी जीत का इतना भरोसा था कि नतीजे घोषित होने से पहले ही उनके समर्थकों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया था. नतीजे उनके खिलाफ आए. नतीजों में वह चुनाव हार गए और इंदिरा गांधी को विजयी घोषित किया गया था. इस चुनावी नतीजे के खिलाफ राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की. करीब पांच साल तक चले इस मुकदमे के बाद 12 जून 1975 को हाईकोर्ट ने राजनारायण के पक्ष में फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी की कुर्सी को हिलाकर रख दिया. ये पहला मौका था जब किसी हाईकोर्ट ने मौजूदा प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करने का दोषी पाते हुए उनके रायबरेली से सांसद के रूप में चुनाव को अवैध घोषित कर दिया.

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इतना ही नहीं हाईकोर्ट ने अगले छह साल तक इंदिरा गांधी के किसी भी तरह का चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था. ऐसे में इंदिरा गांधी राज्यसभा भी नहीं जा सकती थीं. लिहाजा, उनके पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचा था. राजनीतिक जानकारों के अनुसार कांग्रेस पार्टी ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के इस फैसले पर खूब माथापच्ची की. लेकिन उस समय पार्टी की जो ​स्थिति थी उसमें इंदिरा गांधी के अलावा किसी और के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी. कहा जाता है कि ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा देने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने इंदिरा गांधी को सुझाव दिया कि अंतिम फैसला आने तक वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं. बरुआ का कहना था कि प्रधानमंत्री वे बन जाएंगे.

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लेकिन कहते हैं कि जिस समय प्रधानमंत्री आवास पर यह चर्चा चल रही थी ​उसी समय वहां इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी आ गए. उन्होंने अपनी मां को किनारे ले जाकर सलाह दी कि वे इस्तीफा न दें. उन्होंने इंदिरा गांधी को समझाया कि प्रधानमंत्री के रूप में पार्टी के किसी भी नेता पर भरोसा नहीं किया जा सकता. संजय ने उन्हें कहा कि पिछले आठ सालों में खासी मशक्कत से उन्होंने पार्टी में अपनी जो निष्कंटक स्थिति हासिल की है, उसे वे तुरंत खो देंगी. जानकारों के अनुसार इंदिरा गांधी अपने बेटे के तर्कों से सहमत हो गई. उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा देने के बजाय बीस दिनों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी.

सुप्रीम कोर्ट से इंदिरा का नहीं मिली पूरी तरह राहत

11 दिन बाद 23 जून को इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए दरख्वास्त की कि हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्णत: रोक लगाई जाए. अगले दिन सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने अपने फैसले में कहा कि वे इस फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी, लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं. कोर्ट ने बतौर सांसद इंदिरा गांधी के वेतन और भत्ते लेने पर भी रोक बरकरार रखी.

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जेपी ने सभी को इंदिरा के खिलाफ एकजुट किया

यही वह समय भी था जब गुजरात और बिहार में छात्रों के आंदोलन के बाद देश का विपक्ष कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो चुका था. लोकनायक कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण यानी जेपी पूरे विपक्ष की अगुआई कर रहे थे. वे मांग कर रहे थे कि बिहार की कांग्रेस सरकार इस्तीफा दे दे. वे केंद्र सरकार पर भी हमलावर थे. ऐसे में कोर्ट के इस फैसले ने विपक्ष को और आक्रामक कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी. जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की. उस रैली में जेपी द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है. यह नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. जेपी ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करे. उन्होंने कोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए जवानों से आह्वान किया कि वे सरकार के उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनकी आत्मा को कबूल न हों.

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भयभीत होकर लगाया आपातकाल

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उन्हें पद पर बने रहने की इजाजत दे दी थी, लेकिन समूचा विपक्ष सड़कों पर उतर चुका था. आलोचकों के अनुसार इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था. ऐसे हालात में उन्होंने आपातकाल लागू करने का फैसला ​किया. इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण के बयान का बहाना लिया. 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, ‘आपातकाल जरूरी हो गया था. एक ‘जना’ सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है. इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था.’

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विपक्ष की साजिश बता विरोधियों को जेल में ठुसवा दिया

25 जून 1977 की रात आपातकाल लागू करने के बाद इंदिरा गांधी ने देश के नाम दिए संदेश में पूरे प्रकरण को अपने खिलाफ साजिश बताया था. अपने संदेश में उन्‍होंने कहा था कि जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही है. आपातकाल लागू होने के बाद, इंदिरा गांधी ने अपने तमाम विरोधियों को जेल में डलवा दिया था. इनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, जार्ज फर्नांडिस जैसे उस दौर के कई बड़े नेता भी शामिल रहे थे.

छीन लिए गए थे नागरिकों के सभी अधिकार

बताया जाता है कि सरकार ने पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया गया था. आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था. इमरजेंसी में जीने तक का हक छीन लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी 2011 में अपनी गलती मानी थी. सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था.

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जनता ने लिया आपातकाल का बदला

जेपी की लड़ाई निर्णायक मुकाम तक पहुंची. इंदिरा को सिंहासन छोड़ना पड़ा. मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी का गठन हुआ. 1977 में फिर आम चुनाव हुए. 1977 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी. इंदिरा खुद रायबरेली से चुनाव हार गईं और कांग्रेस 153 सीटों पर सिमट गई. 23 मार्च 1977 को इक्यासी वर्ष की उम्र में मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने. ये आजादी के तीस साल बाद बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी.

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