Shyamji Krishna Verma: श्री श्याम जी कृष्णवर्मा विलक्षण प्रतिभा के धनी क्रांतिकारी थे जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए समर्पण भाव से विदेशी धरती से निरंतर प्रयास करके अनेक युवाओं को क्रांतिकारी बनाया और स्वाधीनता संग्राम में महती भूमिका निभाई। छत्रपति शिवाजी की ही भांति उनके जीवन में संस्कार व कौशल जगाने का कार्य उनकी माता ने किया। हाईस्कूल की शिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने भी गए।
मुंबई में महर्षि दयानंद सरस्वती के संपर्क में आने के बाद उन्होंने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया और वह धर्म प्रचारक बन गये। नासिक, अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच, सूरत आदि जिलों में उन्होंने संस्कृत भाषा में ही प्रचार कार्य किया। इसी दौरान ब्रिटिश प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत का अध्यापक नियुक्त करवाने में सहायता की परंतु उन्होंने वेदों का प्रचार जारी रखा। कुछ समय बाद वह भारत वापस आ गये और मुंबई में वकालत करने लगे।
वह भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे। उसी समय में लोकमान्य तिलक जी ने उन्हें विदेशों में स्वतंत्रता हेतु कार्य करने का सुझाव दिया। तिलक जी का सुझाव मानकर वह इंग्लैड चले गये और उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन ) रखा। यह भवन क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बन गया। उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्र वृत्तियाँ प्रारम्भ कीं।
1857 के समर का अर्धशताब्दी उत्सव भारत भवन में धूमधाम से मनाया गया। वर्मा जी ने इंडियन सोशियोलाजिस्ट नामक समाचार पत्र भी निकाला। उनके विचारों से ही प्रभावित होकर वीर सावरकर, सरदार सिंह राणा और मादाम भीका जी कामा जैसे महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए। लाला लाजपत राय विपिन चंद्रपाल जैसे महान क्रांतिकारी भी वहां आने लग गये। विजयादशमी पर्व पर भारत भवन में वीर सावरकर और गांधी जी भी उपस्थित हुए थे। जलियांवाला हत्याकांड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधम सिंह के प्रेरणा स्रोत श्याम जी ही थे लाला हरदयाल और मदन लाल धींगड़ा को बनाने वाले भी श्याम जी कृष्ण वर्मा ही थे।
ब्रिटिश सरकार से बचने के लिए वह पेरिस चले गये और पेरिस जाकर ”तलवार“ नामक समचार पत्र निकाला तथा छात्रों के लिए धींगरा छात्रवृत्ति प्रारम्भ की। भारत में होने वाली आधिकांश बड़ी क्रांतिकारी घटनाओं में उनका नाम ही जुड़ रहा था अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गयी। कई साथी पकड़े गये और उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलने लगा अतः वे पेरिस से जेनेवा चले गये जहां उनका निधन हो गया।
( मृत्युंजय दीक्षित, लेखक राजनीतिक जानकार व स्तंभकार हैं.)
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