जन्म– भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त चैतन्य महाप्रभु (Chaitanya Mahaprabhu) जी का जन्म फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा (संवत1407) में बंगाल के नवद्वीप ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र और मां का नाम शची देवी था। ये बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्हें बंगाल के लोग श्री राधा जी का अवतार भी मानते हैं। चैतन्य महाप्रभु के गुरू जी का नाम श्री केशव भारती था वे एक प्रकांड विद्वान थे।
सन्यास– चैतन्य महाप्रभु जी ने 24 वर्ष की अवस्था में सन्यास लिया और केशव भारती जी से दीक्षा ली। यह भी मान्यता है कि सन1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने बिहार के गया में गए तब वहां पर उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक एक संत से हुई उन्होंने महाप्रभु को कृष्ण कृष्ण रटने को कहा और तभी से उनका जीवन बदल गया।
अलौकिक घटनाएं– चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन मे कई अलौकिक घटनाएं हुईं, जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति सम्पन्न और प्रबल भगवदभक्त होने का परिचय मिलता है। इन्होंने अपनी भक्ति के बल पर एक बार अद्वैतप्रभु को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया था।नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायणरूप और श्रीकृष्ण रूप का दर्शन किया था। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और चैतन्य को बलराम और श्रीकृष्णरूप में देखा था। चैतन्य चरितामृत के अनुसार इन्होने अपने भक्ति भाव से कई कोढ़ियों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोगमुक्त किया था।
संकीर्तन का प्रचार- सन्यास ग्रहण करने के पश्चात चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत में संकीर्तन और कृष्ण भक्ति का प्रसार करके वैष्णव धर्म को जागृत किया। उन्होंने अपनी यात्राओं में हरिनाम के माध्यम से चारों ओर प्रेम स्वरूपा भक्ति की धारा बहा दी। वह दक्षिण भारत के श्रीरांगम मंदिर के प्रधान अर्चक श्रीवेंकटभटट के यहां उन्होंने चातुर्मास बिताया और श्रीगोपाल भटट को वैष्णव धर्म की शिक्षा के साथ शास्त्रीय प्रमाणों सहित एक स्मृति ग्रंथ की रचना का आदेश दिया।
भक्ति साधना– चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन के अंतिम छः वर्ष तो राधा भाव में ही व्यतीत हुए। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सभी लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय ये श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मुक्त होकर नृत्य करने लगते थे लोग देखते ही रह जाते थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा और श्रीकृष्ण भक्ति का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानंद सरस्वती जैसे वेदांती भी इनक सत्संग मात्र से ही श्रीकृष्णप्रेमी बन गये। इनके प्रभाव से इनके विरोधी भी प्रभु के भक्त बने और जगाई, मधाई जैसे दुराचारी अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी संत हो गए। इनका मुख्य उद्देश्य भगवान के नाम का प्रचार करना और संसार में भगवद भक्ति और शांति की स्थापना करना था। चैतन्य जी के भक्ति सिद्धांत में द्वैत और अद्धैत का बहुत ही सुंदर समन्वय हुआ। इन्होंने जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम संकीर्तन को ही प्रमुख उपाय माना है।
चैतन्य जी के उपदेशों का सार– मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाये। कीर्तन करते समय वह इतना मग्न हो जाये कि उसके नेत्रों से प्रेम के आंसू बह निकलें।उसकी वाणी गदगद हो और शरीर पुलकित हो जाये। भगवन्नाम के उच्चारण में देशकाल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। यद्यपि भगवान के सभी नाम कल्याणकारी हैं किंतु “हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे” यह महामंत्र सबसे अधिक मधुर और भगवत्प्रेम को बढ़ाने वाला है।”
( मृत्युंजय दीक्षित, लेखक राजनीतिक जानकार व स्तंभकार हैं.)
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