बॉलीवुड: सेंसर बोर्ड ने फिल्म “मोहल्ला अस्सी” को जिन गालियों की वजह से कई सालों से लटकाया हुआ था, वह गाली कोई अब्यूजिंग लैंग्वेज नहीं बल्कि वह बनारस की स्वाभाविक भाषा और जीवनचर्या है। जो बनारस के हर व्यक्ति की जुबान पर आ ही जाती है और इस गाली का कोई बुरा भी नहीं मानता है. अगर आप बनारस में कुछ दिन रहें, वहां की गलियों में घूमें, लोगों से मिले और वहां के जन-जीवन में शामिल हों तो आपको भी लगेगा कि यह गाली एक तरह से बनारस की नेचुरल अभिव्यक्ति है।
बता दें, इस फिल्म में अयोध्या राम मंदिर विवाद से लेकर, राजनीतिक पार्टियों और हिन्दू- मुसलमान विषय पर भी तथ्यों की विवेचना दिखाई गई है. इस फिल्म में राम मंदिर विवाद में सनी देओल को गोली लगने का एक सीन भी दर्शाया गया है और छोटे-छोटे राजनीतिक मुद्दों को लेकर आपसी मनमोटाव भी दिखाया गया है. वैसे तो फिल्म विवादों का पूरा पैकेज है लेकिन सामाजिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस फिल्म का निर्माण किया गया है.
बहरहाल, कई साल की लंबी अदालती लड़ाई और जद्दोजहद के बाद विवादास्पद मोहल्ला अस्सी फिल्म अंततः पिछले शुक्रवार से सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। गुरुवार शाम अंधेरी पश्चिम के फन रिपब्लिक में इस फिल्म का प्रीमियर शो रखा गया था, जिसमें मोहल्ला अस्सी के अभिनेता-अभिनेत्री और फिल्म से जुड़े दूसरे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में बॉलीवुड और मीडिया के लोग आमंत्रित थे। लोगों ने फिल्म देखने का बाद उसकी जमकर तारीफ की। वाकई कई कलाकारों ने फिल्म में जोरदार अभिनय किया है।
फिल्म का रिव्यु…
अगर फिल्म मोहल्ला अस्सी की बात करें तो, प्राचीनतम शहर बनारस की पृष्ठभूमि में बनी मोहल्ला अस्सी फिल्म भारतीय समाज, खासकर धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार करती है। दरअसल, फिल्म बताती है कि एक धर्म-निरपेक्ष समाज में जब सांप्रदायिकता के माहौल के धर्म जहर का रिसाव शुरू होना शुरू होता है, तब माहौल बदलने में समय नहीं लगता है। फिल्म के आखिर में यह भी संदेश दिया गया है कि इन बाहर हो रही घटनाओं से एक आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता है। आम आदमी के जीवन में परिवर्तन तभी आता है जब वह समय के साथ खुद को सुधारने की कवायद में जुट जाता है।
इस फिल्म की कहानी दो ट्रेक पर चलती है। पहली पंडित धर्मनाथ पांडेय (सन्नी देओल) को समय के बदलाव के साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। अस्सी पर पप्पू की चाय दुकान, पंडितों का मुहल्ला और वहां के घाट इस द्वंद्व के चित्रण का मंच है।
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मंडल कमीशन और मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट पप्पू की चाय की चुस्कियों में भी महसूस की जाती है, जहां भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग अकसर चाय पर चर्चा करते देखे जाते हैं। फिल्म में बाजारवाद ने मूल्यों और परम्पराओं को निशाना बनाया गया है। सच पूछो तो यह फिल्म राजनीति व बाजारीकरण के प्रभावों से समाज, मूल्यों और परम्पराओं में पैदा हुए द्वंद्व को बयां करती है।
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