‘बड़े दुख और चिंता के साथ हमने आपको यह पत्र लिखना उचित समझा ताकि न्याय प्रणाली के समग्र कामकाज और हाईकोर्ट की स्वतंत्रता को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करने के अलावा माननीय चीफ जस्टिस के कार्यालय की प्रशासनिक कार्य पद्धति पर असर डालने वाले इस कोर्ट के कुछ न्यायिक फैसलों पर प्रकाश डाला जा सके।
कलकत्ता, बांबे और मद्रास के तीन प्राधिकृत हाईकोर्टों की स्थापना के समय से ही न्यायिक प्रशासन को लेकर कुछ स्थापित परंपराएं और परिपाटी चली आ रही हैं। इन तीन प्राधिकृत हाईकोर्ट की स्थापना के एक सदी बाद अस्तित्व में आए इस कोर्ट ने भी उन परंपराओं को अपनाया। इन परंपराओं की जड़ें आंग्ल-जर्मन विधिशास्त्र और व्यवहार में टिकी हैं।
एक पूर्ण स्थापित सिद्धांत यह है कि चीफ जस्टिस कार्यसूची के स्वामी होते हैं। कार्यसूची का निर्धारण करना उनका विशेषाधिकार होता है। एक से ज्यादा कोर्ट की सूरत में कार्य के व्यवस्थित संचालन के लिए यह जरूरी है ताकि इस कोर्ट के सदस्यों या पीठ को यह मालूम हो कि उन्हें किस मामले की सुनवाई करनी है।
यह विशेषाधिकार इसलिए है कि कोर्ट का काम अनुशासित और प्रभावी ढंग से चले, लेकिन यह चीफ जस्टिस को अपने सहकर्मियों पर कोई कानूनी या तथ्यात्मक प्रधानता नहीं देता है। इस देश के न्यायशास्त्र में यह पूरी तरह स्थापित हो चुका है कि चीफ जस्टिस बराबर हैसियत वालों में प्रथम हैं। न तो इससे कुछ ज्यादा और न ही इससे कम।
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पीठ में शामिल जजों की संख्या हो या उनके नाम, इसका निर्धारण में चीफ जस्टिस की मदद करने के लिए समय की कसौटी पर खरी और स्थापित परंपराएं मौजूद हैं।
इस सिद्धांत का एक स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि इस कोर्ट सहित बहुसंख्या वाले किसी भी न्यायिक निकाय के सदस्य ऐसे किसी मामले को अनधिकृत रूप से नहीं हथियाएंगे जिनकी सुनवाई संख्या एवं संरचना के के हिसाब से उचित पीठ द्वारा की जानी चाहिए।
उपरोक्त दो नियमों से किसी भी प्रकार के विचलन का अरुचिकर और अवांछनीय नतीजा यह होगा कि इस संस्था की पवित्रता को लेकर लोगों के मन में संदेह पैदा होगा। कहना न होगा कि इससे अराजकता भी पैदा होगी।
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल के दिनों में इन दोनों नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है। हाल में ऐसे कई मौके आए हैं जब चीफ जस्टिस ने देश और इस संस्था के लिए दूरगामी नतीजों वाले मामले बिना किसी औचित्य के अपने पसंदीदा पीठों को सौंपे गए हैं। किसी भी कीमत पर यह नहीं होना चाहिए।
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इस संस्था को शर्मिंदगी से बचाने के लिए हम उन मामलों का जिक्र नहीं कर रहे हैं लेकिन उपरोक्त दोनों नियमों से उल्लंघन के कारण कुछ हद तक इस संस्था की छवि को नुकसान हो चुका है।
उपरोक्त संदर्भ में हम आपको आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार के मामले में 27 अक्तूबर के आदेश के बारे में बताना उचित समझते हैं जिसमें कहा गया है कि व्यापक जनहित में मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम रूप देने में तनिक भी विलंब नहीं किया जाना चाहिए।
जब मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर का मामला पहले से ही संविधान पीठ के पास है तो यह समझना मुश्किल है कि कोई दूसरी पीठ कैसे इस पर सुनवाई कर सकती है।”