अंग्रेजों द्वारा 1861 में बनाए गए कानून पर उठे सवाल, SC से मांग- ‘रूलर’ नहीं ‘पीपल फ्रेंडली’ पुलिस एक्ट बने

1857 क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए पुलिस अधिनियम (1861 Police Act) बनाया और आश्चर्य की बात है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी इसी अधिनियम के प्रावधानों से भारतीय पुलिस विनियमित हो रही है, जिसका नतीजा पुलिस के प्रति भारतीयों के बढ़ते अविश्वास के रूप में स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है. जिस प्रकार आजादी के पहले अंग्रेजों के खिलाफ शिकायत लिखवाने से भारतीयों को दिक्कत आती थी, उसी प्रकार आज अंग्रेजों की जगह राजनीतिक रसूख वाले असामाजिक तत्वों ने ले ली और भारतीयों की जगह आम नागरिक ने ले ली है, उसी प्रकार आज भी चक्कर लगाए जा रहे हैं. यही वजह है कि भारतीय पुलिस की कार्यप्रणाली पर आए दिन सवाल उठते रहे हैं, और मानव अधिकार आयोग में सबसे अधिक शिकायतें पुलिस के खिलाफ ही लंबित हैं. इसी पुलिस एक्ट पर सवाल उठाते हुए बीजेपी नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय (Ashwini Upadhyay) ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में याचिका दायर की है. उपाध्याय का कहना है कि देश को रूलर नहीं बल्कि पीपल फ्रेंडली पुलिस की जरूरत है. उन्होंने शीर्ष अदालत से गुहार लगाई गई है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह जूडिशियल कमिशन बनाए और पुलिस एक्ट का परीक्षण करे.


अश्विनी उपाध्याय ने अपनी इस याचिका में होम मिनिस्ट्री व लॉ मिनिस्ट्री को प्रतिवादी बनाया है. याचिकाकर्ता के मुताबिक 84 के सिख दंगे हुए, 1990 में कश्मीर में नरसंहार हुआ. साथ ही याचिका में पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद की हिंसा का भी उदाहरण दिया गया. याचिका में कहा गया है कि पुलिस अपने आकाओं केमुताबिक काम करती है. पुलिस लोगों के लिए काम नहीं करती है. पुलिस रूल ऑफ लॉ की रक्षा नहीं कर पा रही है. साथ ही लोगों के जीवन और लिबर्टी के अधिकार और मौलिक अधिकार को सुरक्षित रखने में विफल हो रही है. उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा कि देखने में आता है कि पुलिस एफआईआर तक दर्ज नहीं करती है और कई बार वह राजनीतिक नेताओं की सहमति के बाद ही केस दर्ज करती है. धाराएं भी लगाने में उनकी दखल देखी जाती है. रूल ऑफ लॉ के लिए लोगों के लिबर्टी और लाइफ को सुरक्षित रखने के लिए पुलिस का राजनीतिकरण बहुत बड़ा खतरा है. हमारे पास रूलर पुलिस है न कि पीपल पुलिस.


याचिकाकर्ता के मुताबिक रूल ऑफ लॉ संविधान का अभिन्न अंग है. कोर्ट में मुख्य सवाल यह उठाया गया है कि क्या 1861 का पुलिस एक्ट, रूल ऑफ लॉ, लोगों के जीवन और लिबर्टी के अधिकार को संरक्षित रखने मे विफल हो रहा है? क्या पुलिस एक्ट लोगों के सुझाव के हिसाब से बने? क्या पुलिस एक्ट में मनमाना अधिकार है राजनीतिक दखलअंजादी का? सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह जूडिशियल कमिशन बनाए और पुलिस एक्ट का परीक्षण करे. मॉ़डल पुलिस बिल बने ताकि पुलिसिंग सिस्टम पारदर्शी हो और पीपल फ्रेंडली हो और उनके प्रति जवाबदेह हो. लोगों के जीवन और लिबर्टी के अधिकार के साथ-साथ रूल ऑफ लॉ सुरक्षित हो.


25 फीसदी से भी कम भारतीय करते हैं पुलिस पर विश्वास

अश्विनी उपाध्याय ने बताया कि सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज द्वारा 22 राज्यों में 15,000 से अधिक लोगों पर किए गए सर्वे में जो नतीजा आया है, यह भारतीय पुलिस प्रणाली पर घटते विश्वास को दर्शाता है. रिसर्च के अनुसार 25 फीसदी से भी कम भारतीय पुलिस प्रणाली पर विश्वास करते हैं जबकि भारतीय सेना पर यह विश्वास 54 फीसदी से अधिक है. भारतीय पुलिस पर अविश्वास का एक बड़ा कारण पुलिस की असहयोगी प्रवृत्ति, समय नष्ट करने की प्रक्रिया और भ्रष्टाचार है. जांचों का पेंडिंग होना भी अविश्वास का एक बड़ा कारण है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार प्रत्येक 100000 नागरिकों पर 222 पुलिसकर्मी का एक आदर्श मानक बताया गया है किंतु भारत की वर्तमान पुलिस पर नजर डालें तो प्रत्येक एक लाख व्यक्ति पर यह 144 पुलिसकर्मी है, जबकि भारत की हिंदी भाषी राज्यों जैसे यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश आदि में स्थिति और भी खराब है जो प्रत्येक एक लाख पर लगभग 100 पुलिसकर्मी दर्शाता है.


वर्तमान पुलिस प्रणाली की बड़ी कमियां

  • पुलिस कार्यप्रणाली में राजनेताओं का हस्तक्षेप.
  • असमाजिक एवं गुंडा तत्वों के साथ पुलिस का गठजोड़.
  • आम जनता एवं फरियादियों के साथ दुर्व्यवहार.
  • पुलिस की निष्प्रभावी एवं विलम्बकरी कार्यप्रणाली.
  • वास्तविक दोषी की अपेक्षा निर्दोषों पर प्रकरण.
  • दोषपूर्ण अनुसंधान, नतीजा अपराधी बरी.
  • पुलिस की अपेक्षा अपराधी अधिक मुस्तैद एवं तंदरुस्त.
  • असमाजिक तत्वों की जगह नागरिकों में पुलिस का भय.

राजनीतिक नियंत्रण में कमी लाना जरूरी

उपाध्याय ने बताया कि संख्या बल से उत्पन्न होने वाली कमियों को अन्य उपायों से भी समाप्त किया जा सकता है, अर्थात वर्तमान प्रवर्तनशील पुलिस अधिनियम 1861 में अनेक खामियां है जिन्हें दूर करना बहुत जरूरी है. वर्तमान व्यवस्था में पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी पुलिस महानिदेशक अर्थात डीजीपी होता है जो कि राज्य की राजधानी में पुलिस मुख्यालय में पदस्थ होता है, और कार्यकालिक प्रधान अर्थात राजनेताओं को प्रसन्न करने के लिए होते हैं जो कि पुलिस को एक कठपुतली के समान कार्य करने का सीधा कारण है. यह सही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार राज्य की कानून व्यवस्था कार्यपालिका के हाथ में होनी चाहिए और इसके लिए पुलिस पर कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण भी होना चाहिए किंतु पुलिस के मुखिया की नियुक्ति एक निश्चित समय अवधि तक अथवा फिक्स्ड टर्म रखे जाने से काफी हद तक पुलिस की आत्मनिर्भरता एवं स्वविवेक को गति मिलेगी.


पुलिस के मिसकंडक्ट के खिलाफ बने डिस्ट्रिक्ट पुलिस रेगुलेटरी सेंटर

बीजेपी नेता कहा कि वर्तमान में पुलिस द्वारा किए जाने वाले कदाचरण एवं दुर्व्यहार के लिए कोई भी स्वतंत्र निकाय नहीं है जो कि ऐसी शिकायतों को सुनकर उसपर निर्णय ले सकें. सामान्यत: पुलिस के सामने शिकायत ले जाने पर एफआईआर दर्ज करवाने के लिए नागरिकों को चक्कर लगाने पड़ते है, जबकि भारतीय कानून कहता है कि संज्ञेय अपराध होने पर पुलिस को मामला दर्ज करना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अनेक मामलों में इसे स्पष्ट किया है. ऐसी स्थिति में पुलिस पर निगरानी करने वाली कोई एक ऐसी कानूनी संस्था बननी चाहिए जो यह तय करे कि संज्ञेय एवं गंभीर मामला होने पर भी पुलिस द्वारा मामला दर्ज करने से क्यों इंकार किया गया. इस बात पर जवाब तलब होना चाहिए. वर्तमान में मात्र मानव अधिकार आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज की सकती है, किंतु मानव अधिकार आयोग एक परामर्शदायी संस्था के अलावा और अनुतोष प्रदान नही करता है. पुलिस के विरूद्ध उपचार के लिए एक प्रभावशाली पुलिस रेगुलेटरी स्टेशन बनाया जाना जरूरी है, जो कि प्रत्येक जिले में स्थापित हो.


पुलिस के लिए साप्ताहिक अवकाश और निरंतर ट्रेनिंग की जाए अनिवार्य

पुलिसकर्मी भी हमारी तरह इंसान और उन्हें भी परिवार के साथ समय बिताने के लिए अवकाश होना जरूरी है, साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ परिवार के साथ समय बिताने के लिए परिवार भत्ता भी दिया जाना चाहिए. साथ ही पुलिस को रेगुलर अपडेट रहने के लिए मासिक प्रशिक्षण कार्यक्रम का संचालन नियमित होना चाहिए.


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