जाकार्ताः मंगलवार को महिलाओं के 68 किलोग्राम फ्रीस्टाइल स्पर्धा में दिव्या काकरान जब रेसलिंग मैट पर उतरी थी तब वह सिर्फ पदकों के लिए नहीं बल्कि अपने पिता का सपना पूरा करने के लिए भी उतरी थी. दिव्या के पिता सूरज काकरान खुद एक पहलवान बनना चाहते थे. लेकिन खराब आर्थिक हालात के कारण उन्हें वह औसत खुराक नहीं मिल पाता था जो एक पहलवान के लिए जरूरी होता है. इसलिए दिव्या के पिता भारतीय गांवों में होने वाले पारम्परिक दंगलों में लंगोट बेचने लगे. दिव्या की मां घर पर लंगोट सिलती थी और उनके पिता दंगलों में जाकर लंगोट बेचते थे.
सूरज काकरान इन दंगलों में अपनी संतानों दिव्या और देव को भी ले जाते थे और कभी-कभी दिव्या और देव भी इन दंगलों में लड़ लिया करते थे. दिव्या इन दंगलों में लड़कों से लड़ती थी और इसके बदल दिव्या को इनाम मिलता था. दिव्या खुद बताती हैं कि एक लड़की का लड़के से लड़ना लोगों के लिए मनोरंजन का विषय होता था और इसलिए उन्हें ईनाम में भी अधिक पैसे मिलते थे. दिव्या को पहला इनाम 500 रूपए का मिला था जब उन्होंने रामपुर के दंगल में एक लड़के को चित किया था. 500 रूपए से हुई यह शुरूआत अब हजारों रूपए के इनाम में बदल गई और फिर धीरे-धीरे दिव्या ही अपने घर को चलाने लगीं.
दिव्या के पिता कहते हैं कि हम उसे कुश्ती नहीं लड़ाना चाहते थे क्योंकि एक लड़की को कुश्ती लड़ाने से आस-पास के लोग उन्हें ताना मारते थे. लेकिन दिव्या को कुश्ती लड़ाना अब हमारी मजबूरी बन गई थी. वह जब दंगल में लड़ती थी तो अच्छे पैसे आ जाते थे. दिव्या कहती हैं कि हालांकि उन्हें कभी लड़कों से लड़ने में परेशानी नहीं हुई लेकिन कई बार एक लड़की होने के कारण उन्हें कुछ परेशानियों का सामना भी करना पड़ता था. उन्हें कपड़े बदलने में परेशान होती थी क्योंकि दंगलों में लड़कियों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती थी. जहां लड़के लंगोट में लड़ने के लिए कहीं भी अपना टी-शर्ट और जिंस उतार देते थे, वहीं दिव्या को अपने टी-शर्ट और शॉर्ट्स का कुश्ती कास्ट्यूम पहनने के लिए कोई सुरक्षित जगह ढूंढ़नी पड़ती थी. इसके अलावा वह दंगल में लड़कों से लड़ने से पहले उन्हें खुली चेतावनी दे देती थीं कि वे उनके कपड़ों को ना पकड़ें.
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दिव्या का शुरू हुआ यह सफर सिर्फ दंगल की मिट्टी तक नहीं सिमट कर रह गया. वह धीरे-धीरे दंगल की मिट्टी से रेसलिंग के मैट तक पहुंच गई.इस क्रम में उनके भाई को उनके लिए कुश्ती छोड़नी पड़ी क्योंकि गरीब परिवार में दो पहलवानों के खुराक की आपूर्ति संभव नहीं थी. दिव्या के भाई देव अब दिव्या को कुश्ती सीखने में उनकी मदद करने लगे. दोनों भाई-बहन उत्तरी दिल्ली के प्रेमनाथ अखाड़े में कुश्ती के गुर सीखने जाते थे और धीरे-धीरे दिव्या कुश्ती के फलक पर उभरने लगी. हालांकि यह सफर कभी भी आसान नहीं रहा. दिव्या को जब कभी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने विदेश जाना पड़ता था तो उनकी मां को उनके गहने गिरवी रखने पड़ते थे ताकि विदेशी दौरे की व्यवस्था की जा सके.
धीरे-धीरे काकरान जूनियर कुश्ती में छाने लगीं और टूर्नामेंट्स में उन्हें मेडल मिलने लगे. उन्होंने एशियाई और कॉमनवेल्थ लेवल पर कई पदक जीता. हाल ही में नई दिल्ली में हुए जूनियर एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल जीता था. इससे पहले उन्होंने गोल्ड कोस्ट कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मेडल जीता था. दिव्या अपनी सीमाओं को भी बखूबी समझती हैं. जकार्ता में कांस्य पदक जीतने के बाद उन्होंने संवाददाताओं से बात करते हुए कहा कि दिल्ली में हुए जूनियर एशियाई चैंपियनशिप में उन्होंने गलती की थी और उनके हाथ से गोल्ड फिसल गया था लेकिन यहां पर गोल्ड जीतना मुश्किल था. दिव्या ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि उनके वर्ग में विश्व और ओलंपिक स्तर की पहलवान शामिल थीं. हालांकि 20 वर्षीय दिव्या ने जिस तरह से शुरूआत की है उसे देखकर उनसे आगे भी वैश्विक प्रतियोगिताओं में पदक की उम्मीद की जा सकती है.
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