Farmers Protest: किस कानून के खिलाफ और आखिर क्यों आंदोलन कर रहे किसान ?, विस्तार से जानिए पूरी बात

केंद्र सरकार के कृषि कानून (Farms Law 2020) के खिलाफ पंजाब, हरियाणा समेत देश के कई राज्यों के हजारों किसान दिल्ली में धरना प्रदर्शन (Farmer’s Protest) कर रहे हैं और ‘दिल्‍ली चलो’ (Delhi Chalo March) मार्च निकाल रहे हैं. उधर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों से अपील की है वे विरोध प्रदर्शन खत्म करें, सरकार सभी मुद्दों पर बात करने को तैयार है. उन्होंने कहा कि 3 दिसंबर को वे बात कर सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी किसान आंदोलन थमा नहीं है, वे अभी भी मोर्चा संभाले हुए हैं.


एक तरफ सरकार कह रही है कि कृषि कानून उनके हित में है, वहीं किसान इसे स्वीकारने को तैयार नहीं. दरअसल कृषि से जुड़ा यह मसला एक नहीं तीन विधेयकों का है. इनकी कहानी को समझने के लिए हमें कुछ महीने पीछे की ओर चलना होगा, जब देश में लॉकडाउन था. इन तीन विधेयकों को अध्यादेश के तौर पर लॉकडाउन के दौरान जारी किया गया था. इसके जरिए किसानों की आय बढ़ाने, फसल या उत्पाद का रिस्क खत्म करने और फसल का सही मूल्य मिलने की दिशा में सही कदम बढ़ाने की तैयारी थी. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी अध्यादेश जारी करते हुए ऐसा ही कहा था. 


जिन तीन विधेयकों के जरिए कृषि सुधार का दावा किया जा रहा है वह हैं, द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिटेशन) बिल 2020, द फार्मर्स (एम्पॉवरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑफ प्राइज एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेस बिल 2020 और द एसेंशियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) बिल 2020.


इन्हें हिंदी में समझें तो पहला विधेयक है आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, दूसरा है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक और तीसरा कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक. इन तीनों ही बिलों को लेकर अलग-अलग समस्या हैं, लेकिन एक कॉमन समस्या जो कि इन विधेयकों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन का आधार है, वह है न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि (MSP).


MSP खत्म होने का भय

विश्लेषकों और चिंतकों का कहना है कि तीनों विधेयकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का एक बार भी उल्लेख नहीं है और इसी वजह से उन्हें यह डर है सरकार कहीं इनके जरिए एमएसपी (MSP) व्यवस्था ही खत्म तो नहीं कर देना चाह रही है. हालांकि सरकार ने कहा है कि एमएसपी (MSP) को खत्म करने की कोई योजना नहीं है, लेकिन किसानों का कहना है कि इस विषय में उन्हें भरोसे में नहीं लिया गया है.


आवश्यक वस्तु से बाहर हुए दाल, आलू-प्याज

वहीं केंद्र ने अब दाल, आलू, प्याज, अनाज, खाद्य तेल आदि को आवश्यक वस्तु के नियम से बाहर कर इसकी स्टॉक सीमा खत्म कर दी है. इन दोनों के अलावा केंद्र सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को बढ़ावा देने की भी नीति पर काम शुरू कर रही है. इस पर भी किसान नाराजगी जता रहे हैं.


क्या है आवश्यक वस्तु अधिनियम

आवश्यक वस्तु के नियम को समझने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 पर नजर भी डाल लेनी चाहिए. आवश्यक वस्तु अधिनियम को 1955 में भारत की संसद ने पारित किया था. तब से सरकार इस कानून की मदद से ‘आवश्यक वस्तुओं’ का उत्पादन, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित करती है ताकि ये चीजें उपभोक्ताओं को सही दाम पर उपलब्ध हों.सरकार अगर किसी चीज को ‘आवश्यक वस्तु’ घोषित कर देती है तो सरकार के पास अधिकार आ जाता है कि वह उस पैकेज्ड प्रॉडक्ट का अधिकतम खुदरा मूल्य तय कर दे. उस मूल्य से अधिक दाम पर चीजों को बेचने पर सजा हो सकती है.


एसेंशियल कमोडिटी (अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस से इस बात का डर

आवश्यक वस्तु की सूची में वस्तु या उत्पाद का नाम आ जाने के बाद कालाबाजारी या जमाखोरी से उस वस्तु का सुरक्षा भी हो जाती है. जमाखोरी की वजह से इन चीजों की आपूर्ति प्रभावित होती है तो आम जनजीवन प्रभावित होगा. ऐसे में अगर दाल, आलू, प्याज, अनाज, खाद्य तेल आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर निकल गए तो उनकी जमाखोरी की आशंका बढ़ जाएगी. आलोचकों और विश्लेषकों का कहना है कि फूड सिक्योरिटी पूरी तरह खत्म हो जाएगी.


कुछ पॉइंट्स में समझिए क्या हैं आपत्तियां

किसानों को सबसे बड़ा डर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) खत्म होने का है. इस बिल के जरिए सरकार ने कृषि उपज मंडी समिति यानी मंडी से बाहर भी कृषि कारोबार का रास्ता खोल दिया है. आपको बता दें कि मंडी से बाहर भी ट्रेड एरिया घोषित हो गया है. मंडी के अंदर लाइसेंसी ट्रेडर किसान से उसकी उपज एमएसपी पर लेते हैं, लेकिन बाहर कारोबार करने वालों के लिए एमएसपी को बेंचमार्क नहीं बनाया गया है. इसलिए मंडी से बाहर एमएसपी मिलने की कोई गारंटी नहीं है.


सरकार ने बिल में मंडियों को खत्म करने की बात कहीं पर भी नहीं लिखी है, लेकिन उसका इंपैक्ट मंडियों को तबाह कर सकता है. इसका अंदाजा लगाकर किसान डरा हुआ है. इसीलिए आढ़तियों को भी डर सता रहा है. इस मसले पर ही किसान और आढ़ती एक साथ हैं. उनका मानना है कि मंडियां बचेंगी तभी तो किसान उसमें एमएसपी पर अपनी उपज बेच पाएगा.


इस बिल से ‘वन कंट्री टू मार्केट’ वाली नौबत पैदा होती नजर रही है. क्योंकि मंडियों के अंदर टैक्स का भुगतान होगा और मंडियों के बाहर कोई टैक्स नहीं लगेगा. अभी मंडी से बाहर जिस एग्रीकल्चर ट्रेड की सरकार ने व्यवस्था की है उसमें कारोबारी को कोई टैक्स नहीं देना होगा. जबकि मंडी के अंदर औसतन 6-7 फीसदी तक का मंडी टैक्स (Mandi Tax) लगता है.


किसानों की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है कि आढ़तिया या व्यापारी अपने 6-7 फीसदी टैक्स का नुकसान न करके मंडी से बाहर खरीद करेगा. जहां उसे कोई टैक्स नहीं देना है. इस फैसले से मंडी व्यवस्था हतोत्साहित होगी. मंडी समिति कमजोर होंगी तो किसान धीरे-धीर बिल्कुल बाजार के हवाले चला जाएगा. जहां उसकी उपज का सरकार द्वारा तय रेट से अधिक भी मिल सकता है और कम भी.


किसानों की इस चिंता के बीच राज्‍य सरकारों-खासकर पंजाब और हरियाणा- को इस बात का डर सता रहा है कि अगर निजी खरीदार सीधे किसानों से अनाज खरीदेंगे तो उन्‍हें मंडियों में मिलने वाले टैक्‍स का नुकसान होगा. दोनों राज्यों को मंडियों से मोटा टैक्स मिलता है, जिसे वे विकास कार्य में इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, हरियाणा में बीजेपी का शासन है इसलिए यहां के सत्ताधारी नेता इस मामले पर मौन हैं.


एक बिल कांट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित है. इसमें किसानों के अदालत जाने का हक छीन लिया गया है. कंपनियों और किसानों के बीच विवाद होने की सूरत में एसडीएम फैसला करेगा. उसकी अपील डीएम के यहां होगी न कि कोर्ट में. किसानों को डीएम, एसडीएम पर विश्वास नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि इन दोनों पदों पर बैठे लोग सरकार की कठपुतली की तरह होते हैं. वो कभी किसानों के हित की बात नहीं करते.


केंद्र सरकार जो बात एक्ट में नहीं लिख रही है उसका ही वादा बाहर कर रही है. इसलिए किसानों में भ्रम फैल रहा है. सरकार अपने ऑफिशियल बयान में एमएसपी जारी रखने और मंडियां बंद न होने का वादा कर रही है, पार्टी फोरम पर भी यही कह रही है, लेकिन यही बात एक्ट में नहीं लिख रही. इसलिए शंका और भ्रम है. किसानों को लगता है कि सरकार का कोई भी बयान एग्रीकल्चर एक्ट में एमएसपी की गारंटी देने की बराबरी नहीं कर सकता. क्योंकि एक्ट की वादाखिलाफी पर सरकार को अदालत में खड़ा किया जा सकता है, जबकि पार्टी फोरम और बयानों का कोई कानूनी आधार नहीं है. हालांकि, सरकार सिरे से किसानों की इन आशंकाओं को खारिज कर रही है.


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