न स्वाभिमान रहा और न हीं सीटें, तो इसलिए हो गया ‘सपा’ का सफाया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में जबर्दस्त जीत हासिल की है. मोदी ‘लहर’ के सामने विपक्षी कांग्रेस और क्षेत्रीय दल कहीं नहीं टिक पाए. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में गठबंधन को कारारी हार मिली है. इसे समाजवादी पार्टी के लिए एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पूरी ताकत झोंकने के बावजूद जहां कन्नौज में पत्नी डिंपल यादव को नहीं जिता पाए तो फिरोजाबाद और बदायूं में सांसद रहे उनके दोनों चचेरे भाई अक्षय यादव और धर्मेंद्र यादव भी अपनी सीट हार बैठे. उधर मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की जीत का अंतर 2014 के मुकाबले केवल एक चौथाई रह जाने को एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है.


लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सपा से जुड़े लोगों का मानना है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़कर ‘यूपी के दो लड़कों’ वाले साथ से पार्टी को जितना झटका लगा था उससे कहीं ज्यादा नुकसान इस चुनाव में बसपा से गठबंधन करके हो गया है. गठबंधन के लिए अखिलेश की आतुरता और बसपा अध्यक्ष मायावती के आगे हर समझौते के लिए झुकने को तैयार रहने की जिद सपा के परंपरागत यादव वोट बैंक के स्वाभिमान पर चोट कर गई. सपा-बसपा की संयुक्त रैलियों में लोगों ने जब देखा कि डिंपल यादव और तेज प्रताप यादव तो मायावती के पैर छू रहे हैं लेकिन मायावती के भतीजे आकाश ने मुलायम के पैर नहीं छुए तो मैनपुरी और कन्नौज सहित आसपास के यादवों के बीच एक गलत गलत संदेश गया.


यादव इससे आहत हुए तो दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में जहां यादव व दलित मतदाताओं में परंपरागत रार चलती है वहां दलितों ने भी सपा प्रत्याशियों से किनारा कर लिया, नतीजा यह हुआ कि बसपा तो सपा के वोट बैंक के साथ शून्य से दस पर आ गई लेकिन सपा की 7 सीट घटकर न केवल 5 रह गई बल्कि परिवार के तीन सदस्यों की भी सीट चली गई. यह तब हुआ जब एक तरफ बसपा से गठबंधन था तो उधर कांग्रेस ने भी सपा परिवार के प्रत्याशियों के सामने कन्नौज, बदायूं और फिरोजाबाद में उम्मीदवार नहीं उतारा था. मुलायम पहले ही आधी सीटों पर चुनाव लड़ने को आधी सीटों की हार मान रहे थे तो अब इन नतीजों के बाद सपा के शीर्ष परिवार के भीतर से ही गठबंधन को लेकर सवाल उठने लगे हैं. पार्टी में भी कार्यकर्ता अब बसपा के वोट बैंक को लेकर आशंकित है उनका कहना है कि जैसे नतीजे आए हैं उससे सपा को फिर अपने दम पर चलने के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा. सपा को लग रहा था कि पिछली बार 3.6 लाख वोटों के अंतर से जीते मुलायम सिंह यादव रिकॉर्ड बनाएंगे लेकिन कमजोर कहे जाने वाले भाजपा प्रत्याशी ने उन्हें ऐसी टक्कर दी की जीत का अंतर 94 हजार ही रह गया. इसे जानकार हार के तौर पर ही देख रहे है.


अपने अपने वजूद को लेकर साथ आये सपा- बसपा-रालोद नेताओं को भले ही गठबंधन से बड़ी उम्मीदें थी लेकिन नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं ने इसे पसंद नहीं किया. गठबंधन के 15 सीटों पर सिमटने से साफ है कि धरातल पर तीनों ही पार्टियों के वोट एक दूसरे को ट्रांसफर नहीं हुए हैं. पार्टी नेताओं के लाख चाहने के बावजूद दलित, मुस्लिम जाट और यादव सहित अन्य पिछड़ी जातियों का वोट गठबंधन के साथ रहने के बजाय बंटा है, जिससे तीनों ही पार्टियों को अपेक्षा अनुसार सफलता नहीं मिली है मोदी अपने काम और नाम के दम पर एक बार फिर इन पार्टियों के परंपरागत वोट में गहरी सेंध लगाने में कामयाब हुए हैं. कुछ सीटों पर जरूर कांग्रेस और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी व अन्य छोटे दलों ने भी गठबंधन को नुकसान पहुंचाया है.


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